अर्जुन की महानता
महाभारत का एक दृष्टान्त है । एक बार कौरव सेना में कुछ बातचीत हुई, जिसकी सुचना कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के गुप्तचरों ने उनको दी । तब युधिष्ठिर ने सभी भाइयों को एकांत में बुलाकर कहा – “ कौरव सेना में नियुक्त मेरे गुप्तचरों ने समाचार दिया है कि गतदिवस रात्रि में दुष्टबुद्धि दुर्योधन ने गंगापुत्र भीष्म से प्रश्न किया था कि ‘हे पितामह ! आप पाण्डवों की सेना को कितने समय में नष्ट कर सकते है ?’
तब पितामह भीष्म ने दुर्योधन से कहा कि ‘ मैं एक महीनें में पाण्डव सेना का विनाश कर सकता हूँ ।’ तब दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से भी यही प्रश्न किया तो द्रोणाचार्य ने भी एक महीने में पाण्डव सेना को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की । क्रिपाचार्य से पूछने पर उन्होंने दो महीने का समय बताया और अश्वत्थामा ने तो दस ही दिनो में पाण्डव सेना के विनाश की प्रतिज्ञा की है । जब यही बात कर्ण से पूछी गई तो उसने पांच ही दिनों में हमारी सेना का संहार करने की प्रतिज्ञा ली है ।
अतः हे अर्जुन ! अब मैं तुमसे सुनना चाहता हूँ कि तुम कितने समय में शत्रुओं का विनाश कर सकते हो ?
तब निद्रा को जितने वाले अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण की ओर देखते हुए कहा – “ महाराज ! निसंदेह ये सब महाभट यौद्धा अस्त्रविद्या के पारंगत और विचित्र प्रकार से युद्ध करने वाले है । अतः ये अपने बताये समय में शत्रुओं का विनाश कर सकते है । इसमें कोई संशय नहीं है । कित्नु इससे आपको दुखी नहीं चाहिए । बल्कि जो सत्य मैं आपको कहने जा रहा हूँ, उसपर ध्यान दीजिये ”
यह कहकर अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण की ओर देखा और बोला – “ मैं अकेला मधुसुदन की सहायता से युक्त हुआ, एकमात्र रथ लेकर देवताओं सहित तीनों लोको, सम्पूर्ण चराचर तथा भूत, भविष्य और वर्तमान को पलभर में नष्ट कर सकता हूँ । ऐसा मेरा विश्वास है । क्योंकि भगवान पशुपति ने किरातवेष में द्वन्द्वयुद्ध के समय मुझे अपना महाभयंकर पाशुपतिअस्त्र प्रदान किया था । जो अब भी मेरे पास मौजूद है । इसी अस्त्र से भगवान पशुपति प्रलयकाल में समस्त प्राणियों का संहार करते है ”
युधिष्ठिर को धैर्य बंधाते हुए अर्जुन बोला – “ भ्राताश्री ! इस अस्त्र को न तो गंगापुत्र भीष्म जानते है, न ही द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और अश्वत्थामा ही जानते है । फिर सूतपुत्र कर्ण तो इसे जान ही कैसे सकता है ! परन्तु ! युद्धमें साधारण मनुष्यों को दिव्यास्त्रों द्वारा मारना कदापि उचित नहीं है । अतः हम सरलतापूर्वक युद्ध करके ही शत्रुओं को जीतेंगे ।”
इसी बात से अर्जुन की महानता का पता लगाया जा सकता है कि अपने जीवन से सबसे महत्वपूर्ण युद्ध में भी उन्होंने भगवान पशुपति द्वारा दिए गये दिव्यास्त्र का प्रयोग नहीं किया ।
कर्ण की महानता
कुरुक्षेत्र में अर्जुन और कर्ण के बीच घमासान युद्ध चल रहा था । महाबली अर्जुन के बाणों से कर्ण का रथ बीस –तीस हाथ पीछे खिसक जा रहा था जबकि कर्ण से बाणों से अर्जुन का रथ मात्र दो – तीन हाथ ही खिसक पाता था । यह दृश्य देखकर अर्जुन के सारथि बने भगवान श्रीकृष्ण कर्ण के बाणों की भरपूर प्रशंसा कर रहे थे जबकि अर्जुन के कोशल की नाममात्र भी प्रशंसा नहीं किये ।
यह देखकर अर्जुन बड़ा दुखी हुआ और बोला – “ हे मधुसुदन ! आप मेरे शक्तिशाली प्रहारों की प्रशंसा करने के बजाय उस शत्रु के तुच्छ प्रहारों की प्रशंसा कर रहे है । क्यों ?”
भगवान श्री कृष्ण मुस्कुराये और बोले – “ हे पार्थ ! तुम ही बताओ, तुम्हारे रथ के ध्वज पर साक्षात् हनुमान, पहियों पर शेषनाग और सारथि के रूप स्वयं नारायण विद्यमान है । उसके बाद भी यदि यह एक हाथ भी विचलित होता है तो कर्ण का कौशल बड़ा है ।”
युद्ध के समाप्ति के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ से पहले उतारा, तत्पश्चात स्वयं उतरे । जैसे ही श्रीकृष्ण रथ से उतरे, रथ विस्फोट के साथ स्वतः जलकर भस्म हो गया । यह देखकर अर्जुन का घमण्ड चूर – चूर हो गया ।
शिक्षा – जिस तरह अर्जुन का रथ भगवान श्रीकृष्ण के प्रभाव से निर्बाध रूप से चलता रहा, उसकी तरह हमारा भी यह जीवन रथ उसी परम प्रभु की दया से चल रहा है । अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जीवन में कभी भी अपनी सफलता पर घमण्ड न करें ।