एक समय की बात है । एक नगर में एक ब्राह्मण रहता था । दिनभर ब्राह्मण एक गाँव से दुसरे गाँव और दुसरे से तीसरे गाँव भिक्षा के लिए जाता था । जो भी अन्न और धन उसे भिक्षा में मिल ता उसका एक हिस्सा अपने लिए उपयोग करता और बचा हुआ धन नगर के एक सेठ के यहाँ जमा करा देता था ।
कुछ दिनों बाद ब्राह्मण की कन्या के ब्याह का अवसर आया और धन की जरूरत पड़ी तो ब्राह्मण सेठजी के पास गया । किन्तु सेठजी के मन में बेईमानी आ गई । सेठजी से सोचा कि “ ब्राह्मण भला क्या कर लेगा ?” और उसने ब्राह्मण का धन देने से मना कर दिया । ब्राह्मण ने बहुत अनुनय – विनय किया किन्तु निष्ठुर सेठ टस से मस नहीं हुआ ।
अपना दुखड़ा लेकर ब्राह्मण महोदय उस नगर के राजा चित्रसेन के पास गये और उन्हें अपनी समस्या कह सुनाई ।
राजा ने कहा – “ब्राह्मण देवता ! आपके पास क्या प्रमाण है कि सेठ ने आपका धन लिया है ?”
ब्राह्मण बोला – “महाराज मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है, किन्तु यह सच है कि सेठ के पास मेरी १०० स्वर्ण मुद्राएँ है”
राजा बोला – “ ठीक है, ये बात मैं मान सकता हूँ, किन्तु सेठ ने मना कर दिया तो ?”
ब्राह्मण बोला – “महाराज ! आप राजा है, मैं आपकी प्रजा हूँ । मुझे न्याय दिलाना आपका कर्तव्य है”
ब्राह्मण की बात सुनकर महाराज गंभीर सोच में डूब गये । फिर थोड़ी देर बाद बोले – “ ब्राह्मण देवता ! मेरे पास एक योजना है ।”
ब्राह्मण – “ क्या योजना है ? महाराज !”
राजा – “ कल दोपहर जब नगर में मेरी सवारी निकलेगी, तब आप सेठ की दुकान के आगे खड़े रहना, शेष मैं देख लूँगा ”
दुसरे दिन नियत समय पर ब्राह्मण सेठ की दुकान के आगे जाकर खड़ा हो गया । कुछ ही समय में महाराज की सवारी भी वहाँ आ पहुँची । जैसे ही राजा की सवारी सेठ की दुकान के सामने खड़े ब्राह्मण के निकट पहुँची ।
अत्यंत हर्षोल्लास के साथ महाराज ने ब्राह्मण को संबोधित करते हुये कहा – “ अरे ब्राह्मण देवता कैसे है आप ? बड़े दिनों बाद मिले । आइये – आइये यहाँ बैठिये हमारे साथ ! बोलिए सब कुशल मंगल तो है ?”
ब्राह्मण ने कहा – “आपकी कृपा है महाराज ! सब कुशल मंगल है”
यह सारा दृश्य देख सेठजी पसीना – पसीना हो गये कि कही ब्राह्मण ने शिकायत कर दी तो लेने के देने पड़ जायेंगे, यह सोच सेठजी ने तुरंत अपने एक नौकर को २०० मोहरे देकर कहा कि जाकर ये मोहरे उन ब्राह्मण देवता को दे देना और कहना की हम भी उनकी बेटी की शादी में जरुर आएँगे ।
थोड़ी देर बाद ब्राह्मण शाही सवारी से उतर कर अपने रास्ते चल दिया । सामने से सेठजी का नौकर २०० मोहरों की थैली लेकर आ रहा था । उसने २०० मोहरे ब्राह्मण के हाथों में थमाते हुये कहा कि कमी हो तो बता देना, सेठजी पूरी कर देंगे और सेठजी भी आपकी बेटी की शादी में जरुर आएँगे ।
ब्राह्मण ने महाराज का धन्यवाद किया और ख़ुशी – ख़ुशी घर आया और धूम – धाम से अपनी बेटी की शादी की ।
कहानी का सार – इस कहानी से पहली शिक्षा यह मिलती है कि जब कभी भी आप किसी के साथ कोई समझौता करें, आपके पास उसका लिखित प्रमाण या कोई साक्षी अवश्य होना चाहिए । आजकल समय ऐसा आ गया है कि कब कौन बदल जाये कुछ कहा नहीं जा सकता ।
दूसरी शिक्षा इस कहानी से यह मिलती है कि जीवन में हमेशा अच्छी और महान चीजों का संग करना चाहिए । जिससे आपका व्यक्तित्व भी अच्छा और महान हो । इसके साथ – साथ जिस तरह राजा के सामीप्य से ब्राह्मण लाभन्वित हुआ । उसी तरह आप भी लाभान्वित होते रहे । इसे कहते है – सामीप्य का लाभ ।
प्रेरित – पंडित श्री राम शर्मा आचार्य “अमृतवाणी”