मन की चंचलता सर्व विदित है । अध्यात्म सागर पर भी कई बार लोग प्रश्न करते है कि मन को कैसे वश में किया जाये । क्या करें कि मन हमारे काबू में रहे । तो आइये जानते है कि मन को अपने काबू में कैसे रखा जा सकता है –
सबसे पहला काम, जो आपको करना है वो है “अपने मन को समझना ।” खुद को मन से अलग करना । जब तक आप आत्मा और मन, भावना और इच्छा में भेद नहीं कर लेते, आप अपने मन को काबू में नहीं कर सकते । वास्तव में मन का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व है ही नहीं । आपके ही कुछ आदतों, इच्छाओं और संस्कारों के समुच्चय को मन कहते है । जिसका संचालन भी पूरी तरह से आपकी आत्मा या यूँ कह लीजिये कि आपके द्वारा ही किया जाता है ।
अगर हम मन शब्द को तोड़े तो यह दो अक्षरों में टूटता है – म+न=मन । म अर्थात मैं, न अर्थात नहीं, कुलमिलाकर मन मतलब मैं नहीं । यहाँ मैं से हमारा मतलब आत्मा से है । अर्थात जहाँ भी कुछ ऐसा हो रहा है जो आत्मा के अनुकूल नहीं तो जान लो कि वह कार्य मन के द्वारा हो रहा है । ऐसा नहीं कि वहाँ आत्मा कार्यरत नहीं है । आत्मा कार्यरत है लेकिन निर्णय लेना आत्मा के वश में न होकर आपकी इन्द्रिय इच्छाओं, आदतों और संस्कारों के वश में है ।
यदि आत्मा का यह अध्ययन और भी अधिक गहराई से किया जाये तो इसे चार विभागों में तोड़ा जा सकता है । मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । लेकिन इस लेख मैं हम केवल इसके प्रथम विभाग मन के बारे में चर्चा करेंगे ।
हम सुबह से शाम तक जो भी कार्य करते है, वह किन्हीं इच्छाओं और आवश्यकताओं से प्रेरित होकर करते है । ध्यान दीजिये, शब्दों पर गौर कीजिये – इच्छा और आवश्यकता । दोनों में बहुत बड़ा अंतर है । हर आवश्यकता एक इच्छा होती है, लेकिन हर इच्छा एक आवश्यकता हो, यह जरुरी नहीं । अब सारा खेल इन्हीं दो को समझने में है । तो आइये अब हम कुछ व्यवहारिक उदाहरणों से समझने की कोशिश करते है ।
मान लीजिये आप पानी पी रहे है । अब मैं आपसे प्रश्न करता हूँ कि क्यों पी रहे है ? अब इसके दो जवाब हो सकते है – पहला मन हुआ, इच्छा हुई । दूसरा प्यास लगी, आवश्यकता हुई । ऐसा ही आप अपने दैनिक जीवन के हर कार्य में देख सकते है और आपको दो ही चीज़े देखने को मिलेगी । एक इच्छा तो दूसरी आवश्यकता । बस ! मन का सारा खेल इन दो चीजों को समझने में है । जब आप अपनी इच्छा और आवश्यकता में अंतर करना सीख लेते है तो आप मन को समझ लेते है । और हमें यही तो करना था ।
अब आती है बात जिद की । कई बार ऐसा होता है कि हमें पता होता है कि अमुक कार्य को करना हमारी आवश्यकता नहीं, महज इच्छा है, फिर भी हम उस कार्य को करने के लिए स्वयं को मजबूर महसूस करते है । जैसे आपको भूख नहीं है । लेकिन सामने तरह – तरह के मिष्ठान्न पड़े है, जिन्हें देखकर आपके मुंह में पानी आ रहा है । बहुत कोशिश करने के बाद भी आप खुद को नहीं रोक पाते है और उन्हें खा लेते है ।
एक दूसरा उदाहरण लेते है । मान लीजिये किसी अश्लील चलचित्र या कहानी को सुनकर आपके मन में कुविचारों की वर्षा शुरू हो गई । आप नहीं चाहते हुए भी उन विचारों में डूब रहे हो अर्थात आप अपने मन पर काबू नहीं रख पाए । केवल संकल्पशक्ति की कमी के कारण ।
मन बड़ा जिद्दी है । मन ऐसा घोड़ा है, जिसे यदि काबू में न किया जाये तो वह आपके समय, स्वास्थ्य, और जीवन को मटियामेट करके तबाह कर सकता है । इसके ठीक विपरीत यदि उसे काबू में रखा जाये तो वही आपको महानता और सफलता के चरमोत्कर्ष तक पहुँचा सकता है । अब प्रश्न यह उठता है कि इस बेलगाम घोड़े पर लगाम कैसे लगाये, इसकी ज़िद को कैसे तोडा जाये ?
ऐसी अवस्था में सबसे पहला काम है – मन को मनाइये । मन जिस भी कार्य के लिए ज़िद करता है । आवश्यकता न होते हुए भी वासना के वशीभूत होकर करता है । उसे उस बात के लिए समझाइए । अतीत का दृश्य दिखाइए । उससे कहिये कि “ देख ! तूने अतीत में भी यही घटिया काम किया था, परिणाम क्या हुआ ?, दुःख संताप, पश्चाताप, दर्द । तो इसे दुबारा करने के लिए ज़िद क्यों कर रहा है ?” उसे भविष्य का दृश्य दिखाइए और बताइए कि “ देख ! अगर अभी तू यह गलती करेगा तो भविष्य में तुझे अमुक – अमुक नुकसान झेलने पड़ेंगे । तो फिर क्यों क्षणिक स्वाद, आनंद और मनोरंजन के लिए अपने भविष्य को अंधकारमय बनाता है ।” मन के सामने लाभ और हानि की बराबर समीक्षा करें । किसी भी कार्य के करने से होने वाले फायदे और नुकसान के बारे में उसे यथार्थ रूप से अवगत कराएँ ।
यदि विवेक ने आपका साथ दिया और आपके कारण सही रहे तो आपका मन जल्द ही वास्तविकता को समझ जायेगा और आप गलती करने से बच जायेंगे । लेकिन फिर भी यदि मन जिद पर उतर आये तो आगे का तरीका अपनाये ।
यह बात तो आप बखूबी जानते होंगे कि लोहे को लोहा ही काटता है । जहर का तोड़ जहर ही होता है । यहाँ भी जिद का तोड़ जिद ही है । जिद का मतलब है विवेकपूर्ण दृढ़ संकल्पशक्ति ।
जब पानी सर के उपर निकल जाये । जहाँ समझाने से काम न चले । वहाँ मुकाबले के लिए तैयार रहना चाहिए । उस युद्ध को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेना चाहिए । जिस भी बुरी आदत से आप छुटकारा पाना चाहते है । उसे अपने दुश्मन की तरह देखना शुरू कर दीजिये । उससे घृणा कीजिये । उसे चुनौती समझिये । और दृढ़ संकल्पशक्ति पूर्वक अपने मन को चुनौती दीजिये कि “ तू मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । मेरे साथ क्या होना है और क्या नहीं, ये मैं तय करूंगा तू नहीं ।”
यह ऐसा तरीका है जिससे बुरी से बुरी आदत को भी आप आसानी से छुड़ा सकते है । लेकिन विवेक पूर्वक समझाने में यह सुविधा होगी कि वह आदत हमेशा के लिए छुट जाएगी ।
स्वामी रामतीर्थ का एक दृष्टान्त
यह बात उस समय की है जब स्वामी रामतीर्थ कॉलेज जाते थे । जिस रास्ते से वह कॉलेज जाते थे, उसी मार्ग में एक व्यक्ति प्रतिदिन थड़ी लगाता था । सुबह – सुबह उस थड़ी पर गर्म जलेबी और नाश्ता देख छात्र तीर्थराम का मन जलेबी खाने को ललचाता था । गरीब स्थिति होने से रामतीर्थ के पास ज्यादा पैसे तो नहीं रहते थे । लेकिन वह मन के बड़े संयमी थे । वह मन की कमजोरी को समझ चुके थे और वह इस कमजोरी से छुटकारा पाना चाहते थे । आखिर एक दिन उन्होंने जलेबी के लिए पैसे जुटा लिए और जलेबी खरीदी । जलेबी लेकर वह घर गये और एक धागे में पिरोकर उसे छत से लटका दी लेकिन खाई नहीं । इस तरह कठोर चुनौती देकर स्वामी रामतीर्थ ने अपने मन को मजबूत किया। जब वह खाने लायक नहीं रही तो वह उन्होंने कीड़े – मकोड़ो को डाल दी । इसे कहते है “मन को चुनौती देकर ठीक करना”
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thanks, God bless you for nice suggestion
Great post आत्मसम्मान बढ़ाने के सरल उपाए
आत्मसम्मान बढ़ाने के सरल उपाए