एक बार अर्जुन के पिता देवराज इंद्र की अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ अर्जुन से मिलने की इच्छा हुई । अतः उन्होंने अपने दिव्य रथ और मातलि के साथ अर्जुन को स्वर्ग में आने का आमंत्रण भेजा । इंद्रकुमार अर्जुन ने भी देवराज के आमंत्रण का सहर्ष स्वागत किया और स्नानादि से पवित्र होकर सैकड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान उस दिव्य रथ पर आरुड़ हो गया । इन्द्रपुरी पहुंचकर कुन्तीपुत्र अर्जुन इंद्र से मिले तो इंद्र ने हाथ पकड़कर अपने निटक के आसन पर उनको बिठाया और तरह – तरह से लाड़ करने लगे ।
उसी समय सैकड़ो अप्सराओं और मधुर गायकों द्वारा विधिवत नृत्यगान शुरू हो गया । तत्पश्चात इंद्र ने अर्जुन का यथाविधि पूजन किया और उनको विभिन्न दिव्यास्त्रों की शिक्षा देने लगे । इस तरह पांच वर्षों तक अर्जुन सुखपूर्वक इंद्रपूरी में रहे । तदन्तर इंद्र ने अर्जुन को चित्रसेन से वाद्ययंत्र और नृत्य की शिक्षा लेने का सुझाव दिया । चित्रसेन से संगीत की शिक्षा लेकर अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई ।
एक दिन इंद्र ने नृत्यसभा में अर्जुन के नेत्रों को उर्वशी के प्रति आसक्त जानकर चित्रसेन को एकांत में ले जाकर कहा – “ गन्धर्वराज ! अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी से जाकर कह दो कि आज उसे अर्जुन की सेवा में उपस्थित होना है ।”
यह सुनते ही गन्धर्वराज चित्रसेन उर्वशी से पास पहुंचे और भांति – भांति से अर्जुन के गुणों का बखान करके बोले – “हे कल्याणी ! कुछ ऐसा प्रयत्न करो कि कुन्तीपुत्र धनंजय तुमपर प्रसन्न हो ।”
यह सुनकर अनिद्य सुंदरी उर्वशी के होठों पर मुस्कान दौड़ आई । प्रसन्नचित होकर वह बोली – “ गन्धर्वराज ! तुमसें अर्जुन के सद्गुण सुनकर उनके प्रति मेरा प्रेम और भी अधिक बढ़ गया है । अतः मैं इच्छानुसार यथासमय यथास्थान पर उपस्थित होउंगी ।”
अर्जुन के गुण और ख्वाबों में खोई हुई उर्वशी का ह्रदय कामदेव के बाणों से अत्यंत घायल हो चूका था । स्नानके पश्चात् विभिन्न पुष्पों और आभूषणों से अलंकृत होकर वह अपने प्रियतम के चिंतन में खोई हुई थी । वह मन ही मन सोच रही थी कि विशाल शय्यापर अर्जुन के साथ रमण कर रही है । संध्या होने और चांदनी छिटक जाने पर सर्वांग सुन्दर उर्वशी अपने भवन से निकलकर अर्जुन के शयनकक्ष की ओर चल दी । अर्जुन के द्वार पर पहुंचकर उर्वशी ने द्वारपाल से प्रवेश की अनुमति मांगी । अर्जुन ने अनुमति दे दी ।
उर्वशी को आयी देख अर्जुन लज्जा से झुक गया और उसके चरणों में प्रणाम करने लगा और बोला – “ हे देवि ! अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी मैं आपको प्रणाम करता हूँ । बोलो ! मेरे लिए क्या आज्ञा है ?”
अर्जुन के ऐसे व्यवहार से उर्वशी दंग रह गई । उसने उसी समय चित्रसेन द्वारा कहीं गई सारी बातें अर्जुन को कह सुनाई । उर्वशी बोली – “ हे कुन्तीनन्दन ! मैं तुम्हारे पिता इंद्र के कहने पर ही तुम्हारी सेवा में उपस्थित हुई हूँ और मेरे ह्रदय में भी चिरकाल से यह मनोरथ चल रहा था । तुम्हारे गुणों ने मेरे चित्त को वशीभूत कर लिया है और मैं कामदेव के वश में हो गई हूँ । अतः मेरा मनोरथ पूर्ण करो ।”
उर्वशी की यह बात सुनकर अर्जुन लज्जा से गड़ गये और हाथो से अपने दोनों कान बंद करते हुए बोले – “ हे कल्याणी ! तुम जो कह रही हो, वो सुनना भी मेरे लिए महापाप है । हे देवी ! आप मेरी दृष्टि में गुरुमाता के समान पूजनीय हो ।”
अर्जुन बोले – “ हे कल्याणी ! जिस तरह मेरे लिए माता कुंती और इन्द्राणी शची है, वैसे ही तुम भी हो । उसदिन सभा में मैं तुम्हें यह सोचकर एकटक देख रहा था कि ‘यह आनंदमयी उर्वशी ही पुरुवंश की जननी है’ यह सोचकर ही मेरे नेत्र खिल उठे । अतः मेरे उस व्यवहार को अन्यथा न लो । तुम मेरे वंश की वृद्धि करने वाली हो अतः गुरु समान पूजनीय हो ”
तब उर्वशी बोली – “ हे देवराजनंदन ! हम अप्सराएँ सबके स्वर्गवासियों की सेवा के लिए ही नियुक्त है । अतः मुझे गुरु के स्थान पर नियुक्त मत करो । पुरुवंश के कितने ही नाती – पोते तपस्या करके यहाँ आते है और हमारे साथ रमण करते है । अतः इसमें तुम्हे कोई पाप नहीं लगेगा । मैं तुम्हारी सेवक कामवेदना से पीड़ित और मदनाग्नी से दग्ध हो रही हूँ, अतः मुझे स्वीकार करो ।” उर्वशी के इतना अनुनय – विनय करने पर भी अर्जुन ने उसकी एक न सुनी और बार – बार उसे माता का स्थान देकर प्रताड़ित करता रहा ।
तब क्रोध से व्याकुल होकर उर्वशी ने अर्जुन को शाप देते हुए कहा – “ अर्जुन ! तुम्हारे पिता इंद्र के कहने से मैं तुम्हारी सेवा में उपस्थित हुई और काम से पीड़ित हूँ । फिर भी तुम मेरा निरादर कर रहे हो । मैं तुम्हे शाप देती हूँ कि तुझे इसी तरह स्त्रियों के बीच सम्मानरहित होकर नर्तक बनकर रहना पड़ेगा । जिस तरह नपुंसक की भांति तुम मेरे सामने व्यवहार कर रहे हो, उसी तरह नपुंसक कहलाओंगे और तुम्हारा व्यवहार भी हिजड़ों के जैसा होगा ।” इस तरह शाप देकर अपने क्रोध की ज्वाला को शांत करते हुए उर्वशी अपने निवास स्थान को लौट गई ।
तत्पशचात अर्जुन ने उर्वशी वाली घटना चित्रसेन और तदन्तर देवराज को बताई । तब देवराज ने शाप का समाधान एक वर्ष के अज्ञातवास के रूप में बताया ।
शिक्षा – अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी के प्रेम प्रस्ताव को ठुकराना निश्चय ही बहुत बड़े त्याग का संकेत है । इसी से अर्जुन के संयम और ब्रह्मचर्य का अंदाजा लगाया जा सकता है । वैसे भी कहा जाता है, “जिसने काम को जीत लिया उसके लिए कोई भी विजय दुर्लभ नहीं ।”