स्वामी रामकृष्ण परमहंस न केवल दक्षिणेश्वर काली के पुजारी थे, बल्कि माँ काली के परमभक्त भी थे । वह अक्सर माँ काली के साक्षात् दर्शन करते थे, तथा उन्हें भोजन कराते थे । सौभाग्य से वही स्वामी विवेकानंद के गुरु भी हुए ।
एक बार की बात है । जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस को गले का केंसर हो गया । पानी तो ठीक भोजन भी गले से नीचे उतरना मुश्किल हो गया । अपने गुरु को ऐसी अवस्था में देख स्वामी विवेकानंद और उनके अन्य शिष्य बड़े दुखी होते थे ।
स्वामी विवेकानंद से उनकी यह दशा देखी नही गई । अतः एक दिन उन्होंने अपने गुरुदेव से कहा – “ गुरुदेव ! कब तक इस दर्द को यूँ सहन करेंगे ? आप माँ काली से क्यों नहीं कहते ? क्षणभर में आपका गला ठीक हो जायेगा ।” यह सुनकर रामकृष्ण हंसते रहते थे, बोलते कुछ नहीं ।
एक दिन जब विवेकानंद बहुत ही आग्रह करने लगे, तब रामकृष्ण परमहंस बोले – “ अरे तू समझता नहीं रे नरेंद्र ! अपने किये का निपटारा हमें अभी कर लेना चाहिए । बीच में माँ को डालना उचित नहीं । अगर मैंने इसे माँ की कृपा से अभी टाल दिया तो इसके निपटारे के लिए फिर से आना पड़ेगा । इसलिए जो हो रहा है, वही ठीक है । उसमें व्यवधान डालना उचित नहीं ।”
तब स्वामी विवेकानंद बोले – “ किन्तु गुरुदेव ! इतना तो कह ही सकते है कि आप भोजन पानी ले सके । ऐसे कब तक भूखे रहेंगे ! अब हमसें आपकी यह दशा नहीं देखी जाती ”
रामकृष्ण बोले – “ अच्छा ठीक है, आज कह दूंगा ।” इतना कहकर उन्होंने स्वामी विवेकानंद को निश्चिन्त किया ।
दुसरे दिन सुबह जब वह उठे तो जोर – जोरसे हँसने लगे । उन्हें हँसता देख स्वामी विवेकानंद आदि सभी शिष्य इकट्ठे हो गये और हँसने का कारण पूछने लगे ।
रामकृष्ण बोले – “ आज तो बड़ा मजा आया । तू कह रहा था ना, माँ से क्यों नहीं कहते । मैंने कहा तो माँ ने बड़ा ही मजेदार जवाब दिया । पता है माँ ने क्या कहा ? माँ बोली – ‘ तूने क्या इस गले का ठेका ले रखा है, जो ठीक करवाने की पड़ी है । दूसरों के गले से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है ?’”
हँसते हुए रामकृष्ण बोले – “ रे नरेंद्र ! तेरी बातों में आकर मुझे भी बुद्धू बनना पड़ा । तू ही मेरे पीछे पड़ा था न, माँ से नहीं कहते, माँ से नहीं कहते । माँ ठीक कहती है । इसी गले का क्या ठेका है । अब से तू भोजन करें तो समझना मैंने भोजन कर लिया ।” उस दिन रामकृष्ण पूरा दिन हँसते रहे ।
जब डॉक्टर जाँच करने आये तो उन्होंने रामकृष्ण को हँसते हुए देखा । उन्होंने पूछा – “ आप ऐसी दशा में हंस रहे है । इससे ज्यादा पीड़ा की अवस्था तो और हो नहीं सकती ।”
रामकृष्ण बोले – “ मैं अपनी नादानी पर हंस रहा हूँ, वैद्यजी ! मैं भूल गया था कि सभी गले मेरे अपने ही है । जिससे चांहू उससे भोजन कर सकता हूँ । अब इस एक गले के लिए क्या जिद करना ।”
यही होती है, सच्चे संत की पहचान । वह सम्पूर्ण चराचर में आत्मतत्व को देखते है । जब आत्मा का विश्वात्मा अर्थात परमात्मा के साथ एकात्म हो जाता है तो फिर अपना – पराया कुछ नही रहता । संत को कभी अपने लिए मांगने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि उन्हें कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता ।
चाहे परिस्थितियाँ कितनी ही विकट क्यों न हो । संत कभी अपने लिए नहीं मांगते । संत दे सकते है, मांग नहीं सकते । जो यदि संत ने मांग लिया तो उनका संतत्व समाप्त हो जाता है । इतिहास उठाकर देख लीजिये ! संत ने जिसके सिर पर हाथ रख दिया । उसे क्या से क्या बना दिया है । समर्थ गुरु रामदास ने सामान्य से लड़के शिवा हो छत्रपति शिवाजी बना दिया । आचार्य चाणक्य ने गलियों में खेलने वाले एक लड़के को पकड़ लिया और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य बना दिया । नरेंद्र को ही देख लीजिये । रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें स्वामी विवेकानंद बना दिया । जिन्हें सदियों तक लोग याद करेंगे ।
“ संत वह पारस है, जो जिस पर कृपा कर दे, उसे सोना बना देते है ।”