स्वामीजी की स्पष्टवादिता
बालक नरेंद्र किशोरावस्था से ही ईश्वर प्राप्त गुरु की खोज में थे । पढ़ने – लिखने में तो वह अव्वल थे ही लेकिन ‘ईश्वर की खोज’ उनके लिए एक ऐसी अबूझ पहेली बनी हुई थी, जिसका जवाब वह जिस किसी साधू संत को देखते, उसी से पूछने लगते कि – “ क्या आपने ईश्वर को देखा है ?”
बालक नरेंद्र की आवाज बड़ी ही मधुर थी । वह अक्सर भजन – कीर्तन में गाकर सबको भाव विभोर कर देते थे । एक बार ऐसे ही भजन में रामकृष्ण परमहंस आये हुए थे । वही पहली बार नरेन्द्रनाथ और रामकृष्ण परमहंस ने एक – दुसरे को देखा । इसके बाद रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को दक्षिणेश्वर के काली के मंदिर मिलने के लिए बुलाया ।
जब नरेंद्र नाथ दक्षिणेश्वर के मंदिर उनसे मिलने गये तो उन्होंने देखा कि बड़े – बड़े लोग उनका उपदेश सुन रहे थे और वह ईश्वर के सम्बन्ध में उपदेश दे रहे थे । बालक नरेन्द्र उनके व्यक्तित्व और वचनों से बड़ा प्रभावित हुआ । वह बिना किसी हिचकिचाहट के आगे बढे और अपना प्रश्न पूछने लगे – “क्या आपने ईश्वर को देखा है ?”
बालक नरेंद्र का यह दुसाहस देखकर उनकी सेवा में तत्पर बैठे उनके भक्त बुरा मान गये और कहने लगे – “ अरे बालक ! परमहंसजी स्वयं भगवान् का स्वरूप है इसलिए तुम्हें उनसे ऐसा प्रश्न नहीं करना चाहिए ।”
बालक नरेंद्र ने निसंकोच उत्तर दिया – “ देखिये ! बिना वास्तविकता को जाने किसी बात पर विश्वास करना अन्धविश्वास है और अन्धविश्वासी नहीं होना चाहता ।” बालक नरेंद्र की ऐसी स्पष्टवादिता देख रामकृष्ण परमहंस बहुत खुश हुए ।
तदन्तर उन्होंने जवाब दिया – “ हाँ ! मैंने ईश्वर को वैसे ही देखा है, जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूँ ।” यह सुनकर बालक नरेंद्र ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया और उन्हीं की कृपा से बालक नरेंद्र आगे चलकर स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हुआ ।
स्वामी विवेकानंद की सहज सहिष्णुता
एक बार स्वामीजी रेल के एक डिब्बे में सफ़र कर रहे थे । उसी डिब्बे में कुछ विदेशी यात्री भी थे । उनकी बातचीत से लग रहा था कि वह अपनी भाषा में साधुओं की भरपेट निंदा कर रहे थे । पास में स्वामीजी भी बैठे थे, अतः उनकी ओर इशारा करते हुए गाली दे रहे थे । वो सोच रहे थे कि ये साधू अंग्रेजी नहीं जानता होगा । उस समय भारत में अंग्रेजी के जानकार लोग बहुत कम हुआ करते थे ।
तभी ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी और हजारों की संख्या में लोग स्वामीजी के स्वागतार्थ उपस्थित थे । जिनमें कई अंग्रेज अधिकारी भी थे । स्वामीजी अंग्रेज अधिकारियो द्वारा अंग्रेजी में पूछे गये प्रश्नों के उत्तर अंग्रेजी ने ही दे रहे थे । स्वामीजी को ऐसी स्पष्ट और अच्छी अंग्रेजी बोलते देख वो अंग्रेज यात्री दंग रह गये । बाद में अवसर मिलने पर स्वामीजी से क्षमा मांगकर विनम्रतापूर्वक पूछने लगे – “ हमने साधुओं के बारे में इतना कुछ भला बुरा कहा, सब सुनते हुए भी आप चुप रहे । क्यों ?”
मुस्कुराते हुए स्वामीजी ने शालीनता से जवाब दिया – “ मेरा मस्तिष्क अपने ही कार्यों में इतना व्यस्त था कि आपकी बात को सुनकर उसपर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिला । आप लोग यदि साधुओं के बारे में कुछ भला – बुरा कह रहे थे तो जाहिर सी बात है, आप लोग उनके बारे में कुछ नहीं जानते ।”
स्वामीजी की सहज सहिष्णुता देख अंग्रेज यात्री नतमस्तक हो गये । वो समझ चुके थे कि साधू कितना सहिष्णु हो सकता है ।
मनुष्य की पहचान
शिकागो भाषण के लिए स्वामीजी अमेरिका गये हुए थे । गेरुए वस्त्र और सिर पर पगड़ी पहने अपनी अनोखी पोशाक में स्वामीजी न्ययार्क की सड़को पर जा रहे थे । उनका अनोखा रूप देख लोग कौतूहलवश उनके पीछे – पीछ चलने लगे । थोड़ी ही देर में एक बड़ी भीड़ उनके पीछे चलने लगी । कुछ मनचले लोग उनको देखकर हंसी मजाक करने लगे और उनकी वेशभूषा पर टिका – टिप्पणी करने लगे । थोड़ी देर चलने के बाद स्वामीजी रुके और पीछे मुड़े और बोले – “ सज्जन भाइयो और बहनों ! हो सकता है, आपके देश में सभ्य होने का मापदंड वेशभूषा हो, किन्तु जिस देश से मैं आया हूँ, वहाँ मनुष्य की पहचान उसकी वेशभूषा से नहीं, अपितु उसके चरित्र से होती है ।”
स्वामीजी के तेजस्वी वचनों को सुनकर लोग स्तब्ध रह गये । इतना कहकर स्वामीजी आगे बढ़ गये ।
डरो मत – सामना करो
एक बार स्वामी विवेकानंद काशी में किसी स्थान पर जा रहे थे । प्रसिद्ध है कि काशी के बन्दर बड़े दुष्ट होते है । स्वामीजी भी एक ऐसे ही स्थान से गुजरे जहाँ बहुत सारे बन्दर थे । स्वामीजी को देख बन्दर भी उनकी तरफ बढ़े और काटने लगे । दुष्ट बंदरों से छुटकारा पाना स्वामीजी को असंभव सा प्रतीत हुआ । स्वामीजी तेजी से भागने लगे, तभी अचानक पीछे से एक अपरिचित आवाज आई – “ डरो मत – सामना करो ।”
यह सुनते ही स्वामीजी खड़े हो गये और जोर से बंदरो को डांट लगाई । देखते ही देखते सारे बन्दर भाग गये ।
जीवन के इस प्रसंग से स्वामीजी ने यह सीख ली कि जीवन में जो भी बुरी परिस्थियाँ आती है, हमें उनका डटकर सामना करना चाहिए । परिस्थितियों से भागना कायरता है । कायर पुरुष कभी विजयी नहीं हो सकते । हमें जीवन के हर कष्ट, भय और मुसीबत का सामना करने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए । दुनिया में ऐसी कोई मुसीबत नहीं, जो आपके साहस के सामने टिक सके ।
धर्म की महत्ता उसके आचरण में निहित है
स्वामी विवेकानंद विश्व के कोने – कोने में भारतीय धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता सन्देश पहुंचा रहे थे । इसी दौरान जापान के एक विद्वान ने उनसे पूछा – “ स्वामीजी ! भारत में गीता, वेद, उपनिषत और रामायण जैसे ज्ञान के अनुपम ग्रन्थ होते हुए भी भारतवासी गुलाम और निर्धन क्यों हुए ?”
इस पर स्वामी विवेकानंद ने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया – “ सर्वश्रेष्ठ और शक्तिशाली बन्दूक होते हुए भी यदि मालिक को उसके उपयोग की विधि पता न हो तो वह अपनी रक्षा नहीं कर सकता । यही विडम्बना है कि विश्व की सबसे प्राचीन धर्म और संस्कृति का संवाहक और रक्षक होते हुए भी भारतवासी उसके अनुरूप आचरण नहीं करते है । धर्म की महत्ता उसके आचरण में निहित है ।”