बेटे की शादी हुई और जैसे ही नई नवेली दुल्हन का आगमन हुआ । माँ ख़ुशी से नाचने लगी । माँ को ऐसा लगा जैसे उसके सारे अरमान पलभर में पुरे हो गये हो । शुरुआत में तो माँ ने बहु को बड़े ही लाड़ – प्यार से रखा, लेकिन जैसे – जैसे दिन बीतते गये । सास का स्वभाव चिडचिडा होता गया । वह बात – बात में बहु को टोकने लगी ।
बहु भी स्वाभिमानी बाप की बेटी थी । वह भी कहाँ तक सुनने वाली थी । वह भी सास को मन ही मन गालियाँ देने लगी । कभी खाने को लेकर तो कभी नहाने को लेकर, कभी बर्तन और झाड़ू लगाने को लेकर सास – बहु में रोज तू – तू, मैं – मैं होने लगी । सास की तो जैसे आदत हो गई थी, बहु की कमियाँ निकालने की । रोज बहु के किस्से चिल्ला – चिल्लाकर पड़ोसियों के सामने सुनाती थी । बहु भी आखिर कब तक सुनती । वह भी पानी सिर से ऊपर निकलने पर सासु माँ को जली – कटी सुना देती थी ।
कभी – कभी तो बात एक दुसरे के खानदान को भला बुरा कहने तक पहुँच जाती तो कभी एक दुसरे पर बर्तन फेंकने की नौबत भी आ जाती थी । बात यहाँ तक आ पहुँची कि बहु सास की एक भी नहीं सुनने लगी । आखिर एक दिन सासुमा ने अपने बेटे से कहकर बहु की पिटाई करवा दी । मज़बूरी में बहु भी बिचारी पिट गई । बहु इस कष्ट – कलह के जीवन से तंग आ चुकी थी । यह क्लेश – कलह का द्वेष लेकर वह पिता के घर भी नहीं जाना चाहती थी ।
आखिरकार एक दिन वह आत्महत्या करने के लिए चल पड़ी । पानी लाने के बहाने वह मटका लेकर घर से निकली । नदी किनारे पहुँचकर उसने मटका एक जगह रखा और तेज जल प्रवाह की ओर बढ़ने लगी । वह जल की तेज धाराओं में गिरकर अपना जीवन नष्ट करने वाली ही थी कि पीछे से किसी ने पकड़ लिया । जब उसने पीछे मुड़कर देखा तो वह स्तब्ध रह गई ।
वह रक्षक एक बुढा साधू था । साधू कुछ पूछता उससे पहले ही वह फुट – फुटकर रोने लगी । साधू ने कहा – “ बेटी ! क्या बात है ? क्यों अपने अमूल्य जीवन को नष्ट करने जा रही थी ?”
वह स्त्री बोली – “ बाबा ! मेरी सास बहुत बुरी है । वह रोज पड़ोसियों से मेरी बुराइयाँ करती है । रोज खुद लड़ाइयां करती है और शाम को जब मेरे पति आते है तो उनके सामने शरीफ बनकर मेरी शिकायत करती है । फिर मेरे पति अपनी माँ का पक्ष लेकर मुझे मारते – पिटते है । मैं तंग आ गई हूँ इस जीवन से । इसलिए मैं अब और अधिक नहीं जीना चाहती, बाबा ! मुझे मर जाने दीजिये ।”
साधू ने अपनी झोली में से एक कपड़ा निकाला, कुछ मन्त्र पढ़े और फूंक मारकर उसे दे दिया और कहा – “ बेटी ! यह अभिमंत्रित धागा है । जब भी सास बोले, यह धागा अपने दांतों से दबाकर रखना और सास जो आदेश दे, बनते कोशिश उनकी बात मान लेना । कुछ ही दिनों में तुम्हारी सास पड़ोसियों से तुम्हारी प्रशंसा करेगी ।”
बहु ने सोचा कि बाबा ने आशीर्वाद दिया है तो ऐसा ही होगा । उसने धागा हाथ में बांध लिया और मटका पानी से भरकर चली गई । घर पहुँची तो देर से आने के कारण सास ने फिर से अपना राग अलापना शुरू कर दिया । बहु ने मटका नीचे रखा और वह धागा दांतों से दबाकर अपना काम करने लगी ।
जब बहु की ओर से कोई प्रतिकार नहीं आया तो सास भी चुप हो गई । अब केवल सास चिल्लाती थी, बहु तो साधू के कहे अनुसार वह धागा दांतों में दबाकर अपना काम करती रहती थी । अब सास ज्यादा बोल नहीं पाती थी क्योंकि साधू का दिया धागा आग में पानी का काम कर रहा था ।
जब सास पड़ोसियों के सामने बहु को बेवजह भला – बुरा कहने लगती तो पड़ोसी सास को ही दोषी मानते और उससे बोलते – “ अरे ओ अम्मा ! इतनी भी क्या जलती हो, अपनी भोली – भाली बहु से । बुढ़ापे में यही तुम्हारी सेवा करेगी ।”
लोगों की बातो का बुढियां पर असर हुआ । तभी एक दिन बुढ़िया आँगन में फिसलकर गिर गई और उसके पैर में मोच आ गई । बिचारी बहु ने जब तक वह ठीक नहीं हुई, उसकी सेवा की । अब बुढ़िया को अपनी गलती का अहसास हो गया । अब वह पड़ोसियों से अपनी बहु की तारीफ करने लगी ।
एक दिन वह साधू गाँव में आया । भिक्षा के लिए वह साधू बाबा उस स्त्री के द्वार पर भी आये जिसको उन्होंने धागा दिया । स्त्री ने देखते ही साधू को पहचान लिया और उनको बहुत – बहुत धन्यवाद कहते हुए प्रणाम करने लगी और बोली – “ बाबा ! आपने चमत्कार कर दिया । मेरी सास अब पूरी तरह से मेरे अनुकूल है ।”
साधू ने हँसते हुए कहा – “ बेटी ! इसमें मेरा कोई चमत्कार नहीं, सब तेरी सहनशीलता का परिणाम है । मैंने तो केवल तुझे सहनशील बनाने का सूत्र दिया था । उस धागे को दांतों में दबाने से तूम कुछ बोल नहीं सकती थी और तुम्हारे नहीं बोलने से सास कब तक बोलती ।
“जब दो लड़ते है तो गलती दोनों की होती है ।”
तूने अपनी गलती सुधार ली, उसे भी अपनी गलती सुधारनी ही थी ।”
शिक्षा – दोस्तों ! जीवन में सहनशील होना बहुत जरुरी है । कुछ लोग इसका गलत मतलब निकाल लेते है । लेकिन सहनशील होने का मतलब ये नहीं कि आप कमजोर है । सहनशील होने का मतलब ये है कि आप मजबूत है । आप सामने वाले के कटु शब्दों को झेल सकते है । किन्तु सहनशील भी धर्म की रक्षा के लिए ही होना चाहिए । अधर्म को कभी सहन न करें ।
जय श्री राम
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