ईश्वर विश्वास की पराकाष्ठा
एक बार दो व्यक्ति व्यापार के लिए दुसरे देश गये । उन दोनों में से एक था पक्का आस्तिक और एक था पक्का नास्तिक । आस्तिक अपने जीवन में हमेशा ईश्वर को धन्यवाद देता था । चाहे उसके साथ अच्छा हो या बुरा । नास्तिक हमेशा ईश्वर को कोसता रहता था ।
चलते – चलते आस्तिक व्यक्ति एक खाई में गिर गया । जिससे उसकी एक टांग बेकार हो गई । लेकिन फिर भी वह ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था । यह देख नास्तिक को अचरज हुआ । उसने पूछा – “ देख ! एक तो तेरी टांग टूट गई और तू है कि ईश्वर को धन्यवाद दे रहा है ।” इस पर आस्तिक बोला – “ हां भाई ! ईश्वर का शुक्रिया जो उसने मेरी एक टांग को सलामत छोड़ दिया । वो चाहता तो इसे भी तोड़ सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया । ईश्वर सचमुच बहुत दयालु है ।”
अब वह आस्तिक व्यक्ति लंगड़ाकर चल रहा था कि आगे दूसरी खाई में गिर पड़ा । इस बार उसकी दूसरी टांग भी टूट गई । इस बार भी वह ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रहा था । यह देख नास्तिक आग बबूला हो गया । वह तुनककर बोला – “ पागल हो गये हो क्या ? तुम्हारी दोनों टांगे टूट चुकी है और तुम हो कि ऐसे निर्दय ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रहे हो ।” इस पर आस्तिक व्यक्ति बोला – “ हाँ भाई ! ईश्वर चाहता तो मेरे हाथ भी तोड़ सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया । इसलिए ईश्वर बहुत दयालु है । वह बड़े प्रेम से मुझे मेरे पुराने पापों का दण्ड दे रहा है । तुम इतनी मदद करो कि दो लाठियों की व्यवस्था कर दो ताकि बैसाखी बनाकर चल सकूं” । नास्तिक मित्र ने दो लाठियों की व्यवस्था कर दी ।
थोड़ा आगे चलने पर वह ओंधे मुंह गिरा । उसके दोनों हाथ टूट चुके थे । इस बार भी वह पड़े – पड़े ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था । यह देख नास्तिक मित्र गुस्से से लाल होकर बोला – “ कैसे आदमी हो तुम ? अब तुम चल भी नहीं सकते और ईश्वर को धन्यवाद दे रहे हो ।”
इस पर आस्तिक व्यक्ति बोला – “ भाई ! ईश्वर ने मुझे अभी भी जिन्दा रखा है । इतना काफी है ।”
यह सुनकर नास्तिक व्यक्ति झुंझलाकर बोला – “ ठीक है ! तो अब मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं करने वाला । मांग लेना अपने ईश्वर से मदद ।” इतना कहकर वह नास्तिक व्यक्ति आगे बढ़ गया ।
थोड़ी देर बाद वहाँ से एक राजा की सवारी निकल रही थी । उसने उस व्यक्ति को वहाँ पड़ा देख उसकी मदद करने की सोची और उसे अपने साथ राज महल ले गया । राजमहल में राजवैद्य ने उसकी चिकित्सा की और वह पूरी तरह से ठीक हो गया । राजा ने उसे अपने यहाँ नोकरी पर रख लिया ।
जब कुछ दिनों बाद वह नास्तिक व्यापारी उस राज्य में व्यापार करने आया तो उसे शाही सेना में देखकर चकित रह गया । नास्तिक उसके पास गया और उससे पूछा – “ ये सब कैसे हुआ ?”
तो आस्तिक मित्र बोला – “ भाई ! ईश्वर बहुत दयालु है । जो हुआ सब उसी की कृपा है ।”
अब नास्तिक भी आस्तिक हो गया ।
ईश्वर की दया पर संदेह क्यों ?
एक बार एक अमीर सेठ के यहाँ एक नोकर काम करता था । अमीर सेठ अपने नोकर से तो बहुत खुश था । लेकिन जब भी कोई कटु अनुभव होता तो वह ईश्वर को बहुत गालियाँ देता था ।
एक दिन वह अमीर सेठ ककड़ी खा रहा था । संयोग से वह ककड़ी कच्ची और कड़वी थी । सेठ ने वह ककड़ी अपने नोकर को दे दी । नोकर ने उसे बड़े चाव से खाया जैसे वह बहुत स्वादिष्ट हो ।
अमीर सेठ ने पूछा – “ ककड़ी तो बहुत कड़वी थी । भला तुम ऐसे कैसे खा गये ?”
नोकर बोला – “ आप मेरे मालिक है । रोज ही स्वादिष्ट भोजन देते है । अगर एक दिन कुछ कड़वा भी दे दिए तो उसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है ।
अमीर सेठ अपनी भूल समझ गया । अगर ईश्वर ने इतनी सुख – सम्पदाएँ दी है, और कभी कोई कटु अनुदान दे भी दे तो उसकी सद्भावना पर संदेह करना ठीक नहीं ।
वह नोकर और कोई नहीं । प्रसिद्ध चिकित्सक हकीम लुकमान थे ।
असल में यदि हम समझ सके तो जीवन में जो कुछ भी होता है, सब ईश्वर की दया ही है । ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए ही करता है ।
अपनी अंतरात्मा का सम्मान करो
एक प्रसिद्ध सूफी संत अमिरुल्लाह हुए है । लोग इनको फ़क़ीर अमीर के नाम से जानते थे । हिन्दू – मुस्लिम सभी संप्रदाय के लोग मन की शांति प्राप्त करने के लिए इनके पास जाते थे । एक दिन एक युवक अमीर बाबा के पास आया और प्रणाम करके बोला – “ बाबा ! मुझे अपना शिष्य बना लीजिये !।”
अमीर बाबा ने उसे बड़े ध्यान से देखा और बोले – “ अगर तुम शिष्य ही बनना चाहते हो तो पहले शिष्य की जिन्दगी का ढंग सीखो ।”
अचरज में पड़कर युवक बोला – “ मैं कुछ समझा नहीं ! बाबा । शिष्य की जिन्दगी का ढंग क्या होता है ?”
अमीर बाबा बोले – “ बेटा ! सच्चा शिष्य अपनी आत्मा का सम्मान करता है । वह तुच्छ लोभ – लालसाओं के लिए और झूठे अभिमान और घमंड के लिए कभी अपने आप को धोखा नहीं देता ।”
और स्पष्ट करते हुए अमीर बाबा बोले – “ इस दुनिया में हर कोई अच्छा होने का दिखावा करता है । कोई अच्छा दिखने के लिए तरह – तरह कपड़े और सजावटी सामान का प्रयोग करता तो कोई सच्चा बनने के लिए चालाकी से प्रत्यक्ष अच्छे काम करके दुनिया को दिखाने की कोशिश करता । मनुष्य समझता है कि वह खुदा से छुपकर उलटे – सीधे काम कर सकता है लेकिन वह भूल जाता है । वह भूल जाता है कि ईश्वर के लिए ना तो दीवारे बाधक है न ही तुम्हारा अंतःकरण । ईश्वर सब देखता है ।”
सच्चा शिष्य वही है जो अपनी अंतरात्मा में उपस्थित उस परमात्मा का सम्मान करना सिख ले । अगर तुम इतना कर सको तो मेरे शिष्य हो सकते हो ।
इतना सुनकर वह युवक समझ चूका था । अगर मैं हर समय ईश्वर की निगरानी में जीना शुरू कर दूँ तो मुझे किसी गुरु की क्या आवश्यकता ?
इस कहानी का सारांश ये है कि जो सच्चा शिष्य होता है उसे कोई गुरु ढूढने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । क्योंकि उसका गुरु स्वयं ईश्वर होता है ।
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