बचपन में ही दादा – दादी का साया छीन गया । जवान होते – होते माँ – पिताजी एक दुर्घटना में चल बसे । ना भाई का सहारा न बहन का प्यार, ऐसे जी रहा था आनंद कुमार । आनंद एक ऐसा युवक जिसका इस दुनिया में कोई नहीं, लेकिन दिल ऐसा कि सबको अपना बना लेता था ।
ईमानदारी, सत्यनिष्ठ और परोपकारशीलता जैसे गुण तो उसमें ऐसे थे, जैसे उसने विरासत में पाए थे । नाम था आनंद लेकिन आनंद जैसा उसके जीवन में कुछ नहीं था । बचपन भी गरीबी में बीता और जवानी भी गरीबी में ही कैद थी । दिनभर लोगों के खेतों में मजदूरी करके जो कुछ कमा लेता था, उससे ही उसका गुजारा चला करता था ।
एक दिन खुले आसमान के नीचे खटिया डालकर तारों में अपनी माँ को ढूंढ रहा था । वह अक्सर अपना अकेलापन मिटाने के लिए आकाश में तारों के घर बनाता और बिगड़ता रहता था । तभी उसे कुलदेवी की आराधना करने की प्रेरणा हुई । अपनी गरीबी और अकेलापन मिटाने के लिए उसने कुलदेवी की आराधना शुरू कर दी ।
मनोभूमि तो पहले से ही पवित्र थी, अतः शीघ्र ही उसकी साधना सफल हुई । देवी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और कहा – “ वत्स आनंद ! यहाँ से उत्तर दिशा में चार योजन दूर परम ज्ञानी महात्मा महर्षि आर्जव रहते है, वही तेरी सभी दुविधाओं का निवारण करेंगे ।” इतना कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गई ।
कुलदेवी से ऐसा शुभ आशीष पाकर आनंद अगली ही सुबह निर्दिष्ट दिशा में रवाना हो गया । उत्साह और उमंग से झूमते हुए उसने एक योजन का रास्ता तय कर लिया । संध्या होने को थी और वह थक भी चूका था । अतः उसने पास के ही किसी गाँव में रात गुजारने की सोची । तभी उसे एक गाँव दिखाई दिया ।
उसने गाँव की ओर जाने वाली पगडण्डी पकड़ ली । तभी उसे रास्ते में उसे एक बुढ़िया बैठी हुई दिखाई दी । आनंद अपरिचितों से परिचय करने में माहिर था । अपने मिलनसार स्वभाव का परिचय देते हुए आनंद बोला – “ कैसी हो माई ? यहाँ रास्ते में क्यों बैठी हो ?”
बुढ़िया भी लाठी का सहारा लेकर उठने की कोशिश करने लगी, लेकिन फिर बैठ गई । बुढ़िया बोली – “ बेटा ! पैर में मोच आ गई है, अब चला नहीं जा रहा है, इसलिए बैठी हूँ ।” मुस्कुराते हुए आनंद बूढी माँ के पास आया और अपने कंधे का सहारा देते हुए बोला – “ चलो ! अब बताओ कहाँ चलना है, मैं लिए चलता हूँ ।” आनंद से ऐसी बिन मांगी मदद पाकर बुढ़िया बड़ी खुश हुई और बोली – “ बेटा ! तुम बहुत अच्छे हो, तुम्हे ईश्वर सदा खुश रखे ।” थोड़ी ही देर में बुढ़िया का घर आ गया । दरवाजा खटखटाया तो अन्दर से एक सुन्दर रूपवती युवती आई और बोली – “ माँ आप ठीक तो हो ? और यह कौन है ?”
बूढी माँ बोली – “ हाँ ! मैं ठीक हूँ, आज ये युवक नहीं होता तो वही बीच रास्ते में पड़ी रहती । चल भीतर जा और इसे जलपान करा ।” युवती ने उस युवक आनंद को जल पिलाया । जल पीकर आनंद जाने लगा तो बुढ़िया बोली – “ तुम तो अजनबी लगते हो बेटा ! इतनी रात को कहाँ जाओगे ?” तब आनंद बोला – “यही गाँव के किसी मंदिर में या पेड़ के नीचे रात काट लूँगा ।”
तब बुढ़िया बोली – “ तुम्हे जाना कहाँ है ?” तब आनंद ने कुलदेवी की बात और महर्षि आर्जव से मिलने का उद्देश्य बताया । तब बुढ़िया बोली – “ फिर तो बेटा ! आज रात तू हमारे घर ही ठहर जा ।” आनंद को भी रुकना ही था । सो वह भी ठहर गया । देर रात तक बूढी माई आनंद से बातें करती रही । अंत में उसने आनंद से कहा – “ बेटा ! मेरी भी एक समस्या है । मेरी ये जो बेटी है, इसका जिद है कि जो इसे बेशकीमती हीरा लाकर देगा, उसी से विवाह करेंगी । महर्षि से पूछता आना कि इसकी यह इच्छा कब पूरी होगी ?” सहमती जताते हुए आनंद बोला – “ जी माई ! जरुर पूछूँगा ।”
दुसरे दिन प्रातःकाल जल्दी उठकर आनंद अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गया । आज भी वह मुश्किल से एक योजन चला होगा कि थक गया । संध्या भी होने को थी । अतः वह घने जंगल में रात्रि के लिए आश्रय की खोज करने लगा । तभी उसे एक झोपड़ी दिखाई दी । वह झोपड़ी के निकट पहुँचा तो उसे एक सन्यासी दिखाई दिया । उसने सन्यासी से रात्रि विश्राम के लिए निवेदन किया । सन्यासी ने प्रसन्नतापूर्वक उसे विश्राम की अनुमति दे दी । सन्यासी ने भी उससे इस घने जंगल में आने का प्रयोजन पूछा तो उसने कुलदेवी और महर्षि आर्जव से मिलने की बात बताई । आनंद का उद्देश्य जानकर सन्यासी ने भी अपनी एक समस्या रखी । सन्यासी बोला – “ मैं तीस वर्षों से कठिन साधना कर रहा हूँ, लेकिन अब तक मैं अपना मन नहीं साध पाया । महर्षि आर्जव से इसका कारण पूछना और मुझे बताना ।” आनंद ने सन्यासी को भी पूछ आने का वचन दे दिया और प्रातःकाल वहाँ से भी रवाना हो गया ।
आज तीसरा दिन था । लगभग एक योजन चला पाया होगा और को प्यास लगी । वह प्यास बुझाने के लिए एक माली के पास पहुँचा । नवयुवक के मिलनसार व्यवहार से माली बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने आनंद से अपने आने का प्रयोजन पूछा । आनंद ने कुलदेवी के दर्शन और महर्षि आर्जव से मिलने की बात बताई ।
उसका उद्देश्य जानकर माली ने उसे रात्रि का विश्राम अपने यहाँ करने के आग्रह किया । आनंद को तो रुकना ही था अतः उसने भी हाँ कर दी । रात को सोते समय माली ने बड़े दुखद शब्दों में एक समस्या कह सुनाई । माली बोला – “ मेरे पिताजी ने मरने से ठीक पहले घर के उत्तरी कोने में चन्दन का वृक्ष लगाने के लिए कहा था । मैंने बहुत प्रयास किया लेकिन चन्दन का वृक्ष बार – बार सूख जाता है, इस तरह मैं नहीं लगा पाया । इसलिए महर्षि आर्जव से मेरी इस दुखद पहेली का हल भी पूछते आना ।” आनंद ने माली को भी आश्वासन दिया कि वह अवश्य पूछेगा और आगे के लिए प्रस्थान किया ।
आज चौथा दिन था । आनंद लगभग एक योजन चला होगा और महर्षि आर्जव की कुटिया दिख गई । बाहर ही एक पेड़ के नीचे महर्षि आर्जव ध्यान मग्न बैठे थे । चारों और शांति और दिव्यता का वातावरण था । आनंद ने सीधे जाकर महर्षि को साष्टांग प्रणाम किया । महर्षि ने आनंद को आशीर्वाद दिया और आने का प्रयोजन पूछा ।
आनंद बोला – “ हे देव ! आप महान है, आप परमज्ञानी है, मेरे जीवन की कई समस्याएं है जिनका समाधान मैं आपसे पूछना चाहता हूँ ।”
महर्षि ने युवक को गौर से देखा और बोले – “ मैं तुम्हारे किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दूंगा, जो पूछना है, पूछो, लेकिन ध्यान रहे ! केवल तीन प्रश्न ही पूछ सकते हो ।”
यह सुनकर आनंद का फूलों की तरह खिलते हुए चेहरे पर उदासी की कालिमा छा गई । उसने निवेदन करते हुए कहा – “ गुरूजी ! मुझे केवल चार प्रश्न पूछने है, एक मेरा और तीन औरों के, जिनका मैंने मार्ग में आतिथ्य ग्रहण किया था । यदि चार में से एक भी चूका तो मैं धर्म संकट में पड़ जाऊंगा । अतः कृपा करके मेरे चार प्रश्नों का उत्तर देने का अनुग्रह करे । ”
महर्षि आर्जव ने फिरसे कहा – “ नवयुवक ! मैं तुम्हारे तीन ही प्रश्नों के उत्तर दूंगा । तुम चार में से कोई भी तीन प्रश्न पूछ सकते हो ।”
महर्षि के हठ के आगे बिचारे आनंद की क्या चलती । बहुत सोचने के बाद आखिरकार अपनी समस्या छोड़कर बुढ़िया, साधू और माली की समस्या पूछनी उचित समझी । उसने एक – एक करके तीनों प्रश्न रखे और महर्षि ने तुरंत उत्तर दे दिए । तीनों प्रश्नों के उत्तर पाकर वह तुरंत वापसी के लिए रवाना हो गया ।
एक योजन चलने पर सबसे पहले माली का घर आया । माली ने आनंद का खूब आतिथ्य सत्कार किया और अपनी समस्या का समाधान पूछा । आनंद बोला – “ महर्षि ने कहा कि आपके पिता बड़े चतुर थे । वह जमीन में गड़े धन के बारे में बताना चाहते थे लेकिन मृत्यु के समय आपके आस पड़ोस बहुत से लोग यहाँ उपस्थित थे । अतः उन्होंने उत्तरी कोने में चन्दन का वृक्ष लगाने के संकेत के रूप में बताया । वृक्ष इसलिए सूख जाता था क्योंकि आप गहराई तक खोदते नहीं और वृक्ष की जड़े ज्यादा गहरी जा नहीं पाती, अतः वृक्ष सूख जाता था । आप उस स्थान पर गहरा खोदिये, आपको काफी धन मिलेगा ।”
यह बात सुनकर माली ने उसी समय खुदाई की । खुदाई में चार सोने के कलश निकले । माली प्रसन्नता से नाचने लगा । माली ने आनंद से कहा – “ मित्र ! तुम्हारी ही कृपा से मुझे यह धन प्राप्त हुआ अतः इस पर जितना अधिकार मेरा है, उतना ही तुम्हारा भी है ।” यह कहकर वह माली दो सोने के कलश आनंद को देने लगा ।
आनंद को मुफ्त में अपार धन मिल रहा था लेकिन फिर भी उसने बिना कोई लालच किये लेने से मना कर दिया । आनंद बोला – “ ये तुम्हारे पूर्वजों का है अतः इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं ।” लेकिन माली भी कहाँ मानने वाला था । वह आनंद के प्रति कृतज्ञ था । अंततः आनंद को आनन्द को पच्चीस हजार स्वर्ण मुद्राएँ स्वीकार करनी पड़ी ।
अगले ही दिन आनंद एक योजन की दुरी तय करके सन्यासी की कुटिया में पहुँच गया ।सन्यासी आनंद को देखकर प्रसन्न हो गया । सन्यासी ने आनंद को जलपान करवाया और मन नहीं सधने का कारण पूछा ।आनंद बोला – “ महर्षि ने बताया कि आप सन्यासी होने से पहले एक करोड़पति जोहरी के पुत्र थे ।”
सन्यासी बोला – “ इससे तुम्हें क्या मतलब ? महर्षि ने समाधान क्या बताया ?, ये बताओ !”
आनंद बोला – “ महर्षि ने कहा है कि आप सन्यासी तो बने लेकिन आपके मन में संशय था कि कहीं यदि साधना में सफल नहीं हुआ तो भविष्य में क्या होगा ? यही सोचकर आपने एक बेशकीमती हिरा छुपाके रख दिया था । वह हीरा ही आपके मन को सधने नहीं दे रहा है ।”
महर्षि आर्जव की यह बात सुनकर सन्यासी अन्दर तक हिल गया । उसने तुरंत हीरे को निकाला और आनंद को थमा दिया । आनंद ने हिरा लिया और अगले ही दिन आगे बढ़ गया ।
एक योजन चला और बुढ़िया का घर आ गया । बुढ़िया बड़ी खुश हुई । उसने आनंद का खूब आतिथ्य सत्कार किया और पूछा कि महर्षि ने मेरी बेटी के बारे में क्या बताया ? आनंद बोला – “ माँ ! महर्षि की कृपा से मुझे ये बेशकीमती हीरा मिला है । इसे आप रखिये और जिसे अपनी बेटी के योग्य समझे उससे दिला दीजियेगा ।” इतना कहकर उसने हीरा बुढ़िया के हाथ में रख दिया ।
बुढ़िया आनंद की वचनबद्धता और परोपकार शीलता से बड़ी प्रभावित हुई । वह मन ही मन ख़ुशी से झुमने लगी । वह झट से उठ और भीतर जाकर अपनी बेटी का हाथ पकड़कर बाहर ले आई और बोली – “ बेटा ! शायद ही तुमसे अधिक सद्गुणी और योग्य वर मेरी बेटी के लिए और कोई हो । इसलिए यह हीरा तुम ही मेरी बेटी को दे दो और इसे पत्नी के रूप में स्वीकार करो ।”
आनंद बुढ़िया की विनती को अस्वीकार नहीं कर सका और उसने वह हीरा उस सुंदरी को दे दिया । हीरे को देखकर युवती की आंखे चमक उठी । बुढ़िया ने दोनों का विवाह करवा दिया ।
आनंद ने अपने घर आकर अपनी पत्नी के साथ कुलदेवी का पूजन किया । उसी रात कुलदेवी फिर से आनंद के सपने में आई और बोली – “ वत्स ! भला करने वाले का हमेशा भला होता है । जो स्वयं से पहले संसार की समस्याओं को देखता है, उसकी समस्याओं का समाधान स्वतः हो जाता है ।”
सोजन्य – अखण्डज्योति पत्रिका, अखिल विश्व गायत्री परिवार