भारत में एक महान ऋषि महर्षि पतंजलि हुए है, जिन्होंने योग की व्याख्या के रूप में एक सटीक और प्रमाणिक शास्त्र योगदर्शन की रचना की । योगदर्शन बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रमाणिक ग्रन्थ है । इसमें सरल, सटीक और सुस्पष्ट वैज्ञानिक भाषा में योग के सिद्धांतों का निरूपण किया गया है । इसलिए यह ग्रन्थ प्रत्येक प्रकार के योग साधक के लिए बहुत ही उपयोगी है । इसलिए योग में उन्नति चाहने वाले साधको को योग दर्शन अवश्य पढ़ना चाहिए । जिससे योग से सम्बंधित सभी भ्रांतियों का निवारण हो सके ।
योगदर्शन को महर्षि पतंजलि ने चार भागों में विभाजित किया । प्रथमः – समाधिपाद, द्वितीय – साधनपाद, तृतीय – विभूतिपाद और चतुर्थ – कैवल्यपाद ।
योग का मूल उद्देश्य चित्त वृत्तियों का निरोध है – योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।।२।।
अष्टांग योग योगदर्शन के साधनपाद वाले भाग में आता है । जिसकी व्याख्या महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों के रूप में की है ।
अष्टांग योग अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि है ।
योग के इन आठ अंगों का अनुष्ठान करने अर्थात आचरण में लाने से चित्तवृत्तियों का शुद्धिकरण होता है, जिससे योगी ऋतम्भरा प्रज्ञा का अधिकारी होता है अर्थात उसका अविद्या का आवरण हट जाता है और आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाता है ।
अष्टांग योग की यहाँ संक्षिप्त जानकारी दी गई है, यदि आप विस्तार से पढ़ना चाहते है तो स्वामी ओमानान्दजी द्वारा लिखा गया और गीताप्रेस – गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “ पातंजल – योगप्रदीप ” ग्रन्थ पढ़े ।
यम – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पांच यम कहलाते है ।
सभी यम धर्मं के रक्षक है, अतः जहाँ यम धर्मं के विरोधी हो जाये वहाँ धर्मं को प्रधानता दे । जैसे नीचे विरोधी भावों में बताया गया है ।
अहिंसा – “ मन, वाणी और कर्म से कभी भी किसी भी प्रकार के प्राणी को दुःख नहीं देना अहिंसा है । दुसरे शब्दों में प्राणीमात्र से प्रेम अहिंसा है ।” विरोधी भाव – देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए की गई हिंसा भी अहिंसा है, क्योंकि वह धर्मं की रक्षक है ।
सत्य – “ इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान हो उसे वैसा का वैसा व्यक्त करना सत्य है ।” विरोधी भाव – लंगड़े को लंगड़ा कहना सत्य है, गूंगे को गूंगा कहना भी सत्य है, किन्तु अहिंसा का विरोधी होने से अधर्म है । अतः व्यर्थ का कटु सत्य कभी ना बोले ।
अस्तेय – “ दूसरों के विचारों, अधिकारों या वस्तुओं का अपहरण करना चोरी (स्तेय) है, इसके विपरीत अस्तेय है ।”
ब्रह्मचर्य – “ मन, वचन और कर्म से सभी अवस्थाओं में सभी प्रकार के मिथुनों का त्याग ब्रह्मचर्य है ।”
मनसा वाचा कर्मणा सर्वावस्थासु सर्वदा ।
सर्वत्र मैथुन त्यागी ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ।।
इसलिए प्रत्येक साधक को चाहिए कि उत्तेजक पदार्थों के सेवन, कामोद्दीपक दृश्यों के दर्शन, गीतों के श्रवण से बचें और सभी प्रकार से ब्रह्मचर्य की रक्षा करें ।
अपरिग्रह – व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए धन – संम्पति का संग्रह परिग्रह और इसके विपरीत इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है ।
नियम – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान यह पांच नियम कहलाते है ।
सभी नियम आत्मा, मन और इन्द्रियों की स्वच्छता व पवित्रता के पोषक और शोधक है , अतः जहाँ नियम पवित्रता विरोधी हो जाये वहाँ पवित्रता को प्रधानता दे । जैसाकि निचे विरोधी भावो में बताया गया है ।
शौच –
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्याम भूतात्मा, बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।।
मनुस्मृति ५१०१
अर्थात् जल से बाहर के अंगो यथा हाथ, पैर आदि शारीरिक अंग को शुद्ध रखे, सत्य के पालन से मन को शुद्ध रखे, विद्या और तप से जीवात्मा का शुद्धिकरण करें, ज्ञान से बुद्धि का शुद्धिकरण करें । शौच स्वयं पवित्रता का प्रतीक है अतः इसमें विरोधी भाव संभव नहीं ।
संतोष – अपने किये गये प्रयत्न के अनुसार जो फल मिले उसमें प्रसन्न रहना संतोष है । कहा भी गया है “ संतोषी सदा सुखी ” जिसे अपने किये गये कर्म में संतोष तथा कर्मफल में विश्वास रहता है वह हमेशा सुखी रहता है । इसलिए आप जो भी करें ईश्वर का कार्य समझ कर करें जिससे आपको असंतोष ना हो ।
तप – धर्मं और कर्तव्य कर्म के लिए कष्ट सहन को तप कहते है । हमारा धर्मं है कि आत्मा को अविद्या की राह से हटाकर विद्या के प्रकाशमय पथ का अनुसरण कराये । इसके निमित्त जो सर्दी – गर्मी, भूख – प्यास आदि कष्ट सहन किया जाता है, वह सभी तप की श्रेणी में आते है । तप संकल्प से किये जाते है, नकल से नहीं । अधिकांश लोग दूसरों का अनुकरण करके व्रत – उपवास आदि रखना शुरू कर देते है किन्तु यह मुर्खता है । आप जो भी तप का अभ्यास करों, उसके पीछे संकल्प होना चाहिए । आपके पास अपने तप का स्पष्ट कारण होना चाहिए कि आप ऐसा क्यों कर रहे है । कोई भी ऐसा तप ना करे , जिससे लाभ के बजाय हानि की सम्भावना अधिक हो । जैसे बहुत से लोग निर्जला एकादशी का व्रत करते है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से एकदम अनुचित है । उपवास कोई भी क्यों ना हो, जल का तो भरपूर उपयोग होना चाहिए ।
स्वाध्याय – स्वाध्याय के दो अर्थ लिए जाते है, पहला – स्वयं का अध्यनन करना और दूसरा सद्ग्रंथो का अध्यनन करना । जिस तरह हमें प्रतिदिन भोजन की आवश्यकता होती है उसी तरह आत्मा को भी प्रतिदिन स्वाध्याय रूपी भोजन की आवश्यकता होती है । स्वाध्याय स्वयं को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया का नाम है । आज का वातावरण बहुत ही कलुषित हो चूका है, तथा प्रतिदिन मार्गदर्शन प्रदान करने वाले गुरु का सुयोग आज के समय में संभव नहीं । इसलिए विद्वान मनुष्य को चाहिए कि सदग्रंथ को अपना मार्गदर्शक मानकर अपने जीवन को ईश्वरीय मार्ग के लिए प्रशिक्षित करें ।
ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर प्रणिधान का माने जो भी करें, ईश्वर को समर्पित कर दे । इससे कर्ता होने का अहंकार नहीं होगा । ईश्वर को हर समय अपने साथ अनुभव करें ।
आसन – सुखपूर्वक बैठने की अवस्था का नाम आसन है । हठयोग में कई आसनों का वर्णन है जिनमें जो आसन साधना के लिए उपयुक्त है उनमें सुखासन, पद्मासन, वज्रासन, बद्ध – पद्मासन और सिद्धासन है । जब लम्बे समय तक योगी साधक को इन आसनों में बैठने का अभ्यास हो जाता है तो उसे आसन सिद्धि कहते है । इनके अतिरिक्त कई आसन है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत उपयोगी है । जिन्हें आप विस्तार से इस लेख में देख सकते है –
प्राणायाम – प्राणवायु को भीतर लेना श्वास है, बाहर निकालना प्रश्वास है । जब इन दोनों की गति को विच्छेद किया जाता है तो इसे प्राणायाम कहते है । प्राणायाम का अविष्कार प्राण नाड़ियों के शुद्धिकरण के लिए किया गया है । इनके शुद्धिकरण के पश्चात् योगी का प्राण पर अधिकार हो जाता है । जब प्राण पर अधिकार हो जाता है तो वह प्राण को जहाँ चाहे लगा सकता है ।असल में प्राणायाम प्राणशक्ति है जिसके सही उपयोग के कई लाभ है । इसके निमित्त कई प्राणायाम है जिनमें से मुख्य प्राणायाम निम्न लेख में दिए गये है ।
प्रत्याहार – प्राण और चित्त दोनों एक दुसरे से बंधे हुए है । यदि मन नियंत्रण में हो जाये तो प्राण स्वतः नियंत्रण में आ जाता है । इसके विपरीत यदि प्राण नियंत्रण में आ जाये तो मन स्वतः नियंत्रण में हो जाता है । “ जहाँ चित्त वहाँ प्राण ” इस उक्ति के अनुसार मन और प्राण का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । जब प्राणायाम करते – करते प्राण नियंत्रण में आ जाता है तो मन स्वतः नियंत्रण में आ जाता है । और जब मन नियंत्रण में आकर इन्द्रियों के बाहरी विषयों से अंतर मुख होना है उसी अवस्था को प्रत्याहार कहते है ।
धारणा – जब मन प्रत्याहार से अंतर मुख होने लगता है तो उसे किसी ध्येय पर लगाया जाता है । प्रवृति से मन चंचल होने से ध्येय वस्तु पर टिकता नहीं है किन्तु बार – बार उसे ध्येय वस्तु पर लाया जाता है । ध्येय के निरंतर प्रवाह की इस प्रक्रिया को धारणा कहते है ।
ध्यान – जब निरंतर धारणा के अभ्यास से मन की प्रवृति किसी वस्तु पर लम्बे समय तक ठहरने की होने लगे तो ध्येय के उस सतत प्रवाह को ध्यान कहते है । इसमें ध्येय और ध्याता का अंतर बना रहता है ।
समाधि – जब ध्येय और ध्याता का अंतर समाप्त होकर केवल ध्येय रह जाये तो उस अवस्था को समाधि कहते है ।
अधिक जानकारी के लिए आप यह लेख पढ़ सकते है –
निश्चय ही दोस्तों आपने अष्टांग योग को जान लिया होगा । इसके साथ आपका क्या अनुभव रहा आप कमेंट में हमारे साथ अवश्य शेयर करें । यदि यह जानकारी आपको उपयोगी लगें तो अपने दोस्तों को अवश्य शेयर करे ।
।। ॐ शांति विश्वं ।।