जब कभी कोई व्यक्ति आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने लगता है तो उसके सांसारिक शुभचिंतक बहुत चिंतित हो जाते है । उन्हें लगता है कि लड़का भटक गया है, इसे नहीं रोका गया तो योगी, सन्यासी और साधू – महात्मा हो जायेगा । वे उसे समझाना शुरू कर देते है, ना मानने पर डांट और फटकार भी सुननी पड़ती है ।
ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ है । एक मेरी मामीजी मुझसे बोली – “अभी तो आप बच्चे हो, क्या जरूरत हैं, अपने ऊपर इतने सारे नियम लादने की । अभी तो आपके हंसने – खेलने के दिन हैं, जिन्दगी का आनंद लेने के दिन हैं, बुढ़ापे में करते रहना ये सब भक्ति – वक्ति, ध्यान – योग ।”
उस समय मुझे महर्षि वशिष्ठ की वह बात याद आ गई जो उन्होंने राम से कही थी । उन्होंने कहा था कि –“ हे राम ! मनुष्य को अपने आत्मकल्याण का पुरुषार्थ युवावस्था में ही कर लेना चाहिए । क्योंकि बुढ़ापे में तो उसका स्वयं शरीर भी उसका साथ नहीं देता, फिर ईश्वर भक्ति क्या खाक करेगा ।”
एक दिन मेरे एक तथाकथित शुभचिंतक ने मुझसे कहा – “ देख बेटा ! जो साधना बड़े – बड़े योगी और तपस्वी कर गये । वह हमारे बस की बात नहीं है । वो जमाना गया, जब ऐसे सिद्ध पुरुष होते थे । ऐसी तपस्याएँ होती थी । अब जमाना बदल चूका है । इसलिए इन बेकार की बातों में अपना समय मत खोओं । अब तो हाथ में पैसा हो तो आप राजा हो, वरना कोई पूछने वाला नहीं ।
वह एक बुजुर्ग व्यक्ति थे । बेशक उनका अनुभव प्रशंसनीय है, किन्तु यह आवश्यक तो नहीं की मुझे उनके कहे अनुसार चल देना चाहिए ।
मैंने सामने एक पहाड़ की ओर इशारा करते हुये उनसे कहा – “ बाबा ! हमें पता है कि इस पहाड़ पर हमें कोई अनमोल चीज़ मिल सकती है । मैं ऐसे लोगों को जानता भी हूँ जो इस पर जा चुके है और उन्होंने वहाँ जाने का रास्ता भी बताया है । किन्तु आप कहते हो कि बेशक वह पहाड़ अनोखा है किन्तु हम वह नहीं जा सकते या वहाँ जाना हमारे बस की बात नहीं, तो क्या मुझे वहाँ नहीं जाना चाहिए ?
कुछ सज्जन होते है जो आत्मोन्नति के लिए कोशिश करते है, लेकिन कुछ व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्याओं के कारण बीच में ही हार मान लेते है । ऐसे आध्यात्मिक मित्र बंधुओं के लिए मैं कहना चाहूँगा –
हिम्मत करने वालों की कभी हर नहीं होती ।
दिल हो सच्चा तो जिंदगी कभी लाचार नहीं होती ।
जोख़िम तो उठाना ही पड़ता है, जिंदगी में दोस्तों ।
जोख़िम उठाये बिना जीवन की घड़ियाँ, सफलता की कभी आसार नहीं होती ।।
इसलिए इस ईश्वरीय राजमार्ग की ओर मनुष्य को जितना जल्दी हो सके, चल देना चाहिए । क्योंकि महाकवि रसखान कहते हैं :-
क्षण भंगुर जीवन की कलिका, कल प्रात को मानो खिली न खिली ।
कलि काल कुठार लिये फिरता, तन नर्म पे चोट झिली न झिली ।
ले – ले हरि नाम अरी रसना, फिर अन्त समय में हिली न हिली ।
अगर कोई सोचता हैं कि आध्यात्मिक जीवन एकदम नीरव हैं, बेकार हैं, तो असल में वह गलत सोचता हैं । अधिकांश लोग अध्यात्म और ईश्वर से दूर इसलिए रहते हैं क्योंकि अनुशासनहीनता और पाप उन्हें अधिक प्रिय लगता हैं ।
उन्हें हमेशा डर लगा रहता हैं कि जो यदि अध्यात्म को धारण किया तो उन्हें अनुशासन में रहना पड़ेगा । इसी डर की वजह से वह दूर भागते रहते हैं । जब बेटा कोई गलती करता हैं, तो बाप से डरता हैं । दूर – दूर भागता हैं । लेकिन जब जरूरत पड़ती हैं तो मुंह लटकाएं बाप के सामने आकर खड़ा हो जाता हैं ।
इसी तरह ऐसे लोग भी कर्म करने की स्वतंत्रता के कारण उल्टे – सीधे कर्म करते रहते हैं और जब जरूरत पड़ती हैं तो अपनी मनोकामनाएं लेकर भगवान के आगे नाक रगड़ने पहुँच जाते हैं । ऐसी बात नहीं कि ईश्वर उन्हें भगा देता हैं ।
सामान्य पिता भी तो अपने बेटे को थोड़ा – बहुत डांट करके आखिर छोड़ ही देता हैं, तो फिर वह तो परमपिता हैं । उसे पता हैं कि आज नहीं तो कल सुधर जायेगा, इस जन्म में नहीं तो दुसरे जन्म में सुधर जायेगा । आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि ईश्वर आपको कितना क्षमा करता हैं ! आपसे कितना प्रेम करता हैं ! लेकिन अफ़सोस ! आप उन नश्वर चीजों से प्रेम करते हैं । जो आज हैं, वो कल नहीं होगी । और जो कल होगी, वो परसों नहीं होगी ।
यदि आपका अपना कोई आध्यात्मिक अनुभव हो तो यहाँ साझा कर ओरों को भी लाभान्वित करें ।