एक बार काकभुशुण्डि जी के मन में यह जिज्ञासा हुई कि “ क्या कोई ऐसा दीर्घजीवी व्यक्ति भी हो सकता है, जो शास्त्रों का प्रकाण्ड विद्वान हो, लेकिन फिर भी उसे आत्मज्ञान न हुआ हो । अपनी इस जिज्ञासा का समाधान पाने के लिए वह महर्षि वशिष्ठ से आज्ञा लेकर ऐसे व्यक्ति की खोज में निकल पड़े ।
नगर, ग्राम, गिरि, कंदर वन सभी जगह भटके तब जाकर उन्हें एक पंडित मिला, जिसका नाम था – पंडित विद्याधर । पंडित विद्याधर वेदादि शास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान थे तथा उसकी आयु चार कल्प हो चुकी थी । उनके ज्ञान के अनुभव के सामने कोई भी टिक नहीं पाता था । किसी की भी शास्त्रीय समस्याओं का समाधान वह आसानी से कर देते थे ।
पण्डित विद्याधर से मिलकर काकभुशुण्डि बड़े प्रसन्न हुए । किन्तु उन्हें आश्चर्य था कि इतने बड़े विद्वान होने के बाद भी पण्डित विद्याधर को लोग आत्मज्ञानी क्यों नहीं मानते थे ?
आखिर क्या कमी है ? इसकी परीक्षा करने के लिए काकभुशुण्डिजी गुप्त रूप से उनके पीछे – पीछे घुमने लगे ।
एक दिन की बात है, जब पण्डित विद्याधर नीलगिरी की पहाड़ी पर प्रकृति की प्राकृतिक सुषमा का आनंद ले रहे थे । तभी संयोग से उधर से कंवद की राजकन्या गुजारी । नारी के असीम सोंदर्य के सामने विद्याधर की दृष्टि में प्रकृति का सौन्दर्य फीका पड़ गया । पण्डित विद्याधर काम के आवेश से आसक्त होकर मणिहीन सर्प की भांति राजकन्या के पीछे चल पड़े । उस समय उनका शास्त्रीय ज्ञान न जाने कहाँ धूमिल हो गया ।
जब मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में आकंठ डूब जाता है तब वह विवेकहीन कहलाता है । विवेक के स्तर के आधार पर ही ज्ञान की महत्ता होती है । विवेक के आधार पर ही व्यक्ति को समझदार कहा जाता है ।
राजकन्या के पीछे पागलों की तरह चलता देख सैनिको ने उन्हें विक्षिप्त समझकर कारागृह में डाल दिया ।
काकभुशुण्डि जी कारागृह में जा पहुँचे और पण्डित विद्याधर से बोले – “ महाशय ! शास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान होकर आपने इतना नहीं जाना कि मन ही मनुष्य के बंधन का कारण है । आसक्ति ही अविद्या की जड़ है ।
यदि आप कामासक्त नहीं हुए होते तो आपकी आज यह दुर्दशा न हो रही होती । विद्यार्जन केवल शास्त्रीय ज्ञान का बोझ ढ़ोने या शास्त्रार्थ करने के लिए नहीं किया जाता है, बल्कि अपने जीवन में धारण करने के लिए किया जाता है ।”
काकभुशुण्डिजी की यह बात सुनकर विद्याधर की आंखे खुल गई । उन्होंने उसी समय अपने ज्ञान को आत्मसात करने का संकल्प लिया और उन्हें उसी समय आत्मज्ञान हो गया ।
सन्दर्भ – अखण्डज्योति पत्रिका
शिक्षा – इस कहानी का विद्याधर हम और आपमें से ही कोई है । जिनके पास दूसरों को देने के लिए शिक्षाओं की कोई कमी नहीं । लेकिन यदि उन्हीं शिक्षाओं का निरक्षण अपने ही जीवन में किया जाये तो स्वयं को एकदम कोरे पाएंगे ।
यदि प्रत्येक व्यक्ति यह संकल्प ले ले कि “मैं तब तक कोई शिक्षा दूसरों को नही दूंगा जब तक कि मैं स्वयं उसे अपने जीवन में पालन न कर लूँ” तो विश्वास रखिये – आपकी शिक्षा किसी ब्रह्मज्ञान से कम नहीं होगी ।
बोलकर व्यक्ति जितना नहीं सिखा सकता, उससे कई गुना अपने आचरण से सिखा देता है । अतः हमें वेदादि शास्त्रों की शिक्षाओं को अपने आचरण में लाना चाहिए न कि केवल उपदेश करना चाहिए ।
अब तब जितने भी महापुरुष हुए है, सबने इसी सिद्धांत को अपने आचरण में लाया है । इसी क्रम में एक दृष्टान्त इस प्रकार है –
आत्मज्ञान का रहस्य
एक बार एक नवयुवक एक ब्रह्मज्ञानी महात्मा के पास गया और बोला – “ मुनिवर ! मुझे आत्मज्ञान का रहस्य बता दीजिये, जिससे मैं आत्मा के स्वरूप को जानकर कृतार्थ हो सकूं ।” महात्मा चुपचाप बैठे रहे ।
युवक ने सोचा, थोड़ी देर में जवाब देंगे । अतः वह वही बैठा रहा । जब बहुत देर होने पर भी महात्मा कुछ नहीं बोले तो युवक फिर से उनके पास गया और बोला – “ महाराज ! मैं बड़ी आशा लेकर आपके पास आत्मज्ञान का रहस्य जानने आया हूँ, कृपया मुझे निराश न करें ।”
तब महात्मा मुस्कुराये और बोले – “ इतनी देर से मैं तुझे आत्मज्ञान का ही तो रहस्य समझा रहा था । तू समझा कि नहीं ?”
युवक बोला – “ नहीं महाराज ! आपने तो कुछ भी तो नहीं बताया !”
तब महात्मा बोले – “ अच्छा ठीक है, एक बताओ ! क्या तुम अपने ह्रदय की धड़कन सुन सकते हो ?”
युवक बोला – “ हाँ महाराज ! लेकिन उसके लिए तो मौन होना पड़ेगा ।”
महात्मा हँसे और बोले – “ बस ! यही तो है आत्मज्ञान का रहस्य । जिस तरह अपने ह्रदय की धड़कन को सुनने के लिए मौन होने की जरूरत है । उसकी तरह अपनी आत्मा की आवाज को सुनने के लिए भी सारी इन्द्रियों को मौन करने की जरूरत है । जिस दिन तुमने अपनी सभी इन्द्रियों को मौन करना सीख लिया । समझों तुमने आत्मज्ञान का रहस्य जान लिया ।”
शिक्षा – वास्तव मैं मौन होने का मतलब है – ध्यान लगाना । हम जिस किसी पर अपना मन एकाग्र करते है, उसी के अनुरूप हमारी मनःस्थिति बनने लगती है, इसीलिए हमें अक्सर देवी – देवताओं का ध्यान करने की सलाह दी जाती है । ताकि हमारा मन भी उनके अनुरूप ही दिव्यता को प्राप्त करें ।