प्राचीन समय की बात है । राजर्षि प्रतीप के पुत्र महाराजा शान्तनु इंद्र के समान तेजस्वी थे । शान्तनु अपने राज्य के हिंसक पशुओं का शिकार करने के उद्देश्य से अक्सर जंगल में घूमते रहते थे । राजा शान्तनु यदा कदा जंगली भैसों का शिकार करते हुए परम पावनी नदी गंगा के किनारे जा पहुँचते थे ।
एक दिन की बात है, जब महाराज शान्तनु गंगा के किनारे विहार कर रहे थे । तभी उन्होंने देखा कि एक अत्यंत सुन्दर आभूषणों से सुसज्जित और लक्ष्मी के समान चमचमाती एक सुंदरी नदी से बाहर आ रही है । ऐसा लग रहा था मानो लक्ष्मी का ही दूसरा रूप हो । उसके सौन्दर्य पर मंत्रमुग्ध हुए महाराज शान्तनु का रोम – रोम उसे देखकर रोमांच से भर गया । तभी सौन्दर्य की देवी की मोहिनी दृष्टि महाराज शान्तनु पर पड़ी । शान्तनु को देखते ही गंगा का ह्रदय स्नेह से भर गया । वह उनके तेज की दासी हो गई ।
राजा शान्तनु उसके निकट जाकर बोले – “ हे सुंदरी ! तुम तुम देवी, राक्षसी, गन्धर्वी, अप्सरा, यक्षिणी, नागकन्या या मानवी जो कोई भी हो । मैं तुम्हारे सौन्दर्य पर मुग्ध शान्तनु तुम्हे अपनी महारानी बनाना चाहता हूँ ।”
तभी गंगा को राजा प्रतीप की बात और वसुओं को दिए गये वचन का ध्यान आया । वसुओं को शाप से मुक्त करने की बात का स्मरण आते ही देवी गंगा बोली – “ हे राजन ! मैं आपकी महारानी अवश्य बनूँगी । किन्तु राजन ! मेरी एक शर्त है – मैं जो भी उचित अथवा अनुचित करूं, उसके लिए आप मुझसे कभी कोई प्रश्न नहीं करेंगे न ही मुझसे कभी कोई अप्रिय वचन कहेंगे । यदि आप मेरी यह शर्त स्वीकार करें तो ही मैं आपके अधीन रहूँगा अन्यथा आपको छोड़ दूंगी ।”
राजा शान्तनु को भी अपने पिता प्रतीप की बात स्मरण हो आई । जो उन्होंने राज्यभार सौंपते वक्त कहीं थी । राजा प्रतीप ने कहा था कि – “ हे पुत्र ! पूर्वकाल में मुझे एक दिव्य कन्या मिली थी । जिसे मैंने अपनी पुत्रवधू बनाने का वचन दिया था । अतः यदि वह दिव्यकन्या तुम्हें मिले और तुमसें प्रेम प्रणय का प्रस्ताव रखे तो तूम उसे बिना कोई प्रश्न किये स्वीकार कर लेना ।” अतः शान्तनु ने अपने पिता के वचन के अनुसार देवी गंगा की शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
तब राजा शान्तनु ने देवी गंगा को अपने रथ पर बिठाया और अपनी राजधानी को चल दिए । देवी गंगा के उत्तम स्वभाव, रूप, उदारता आदि गुणों से राजा बड़े प्रसन्न थे । जितेन्द्रिय राजा उस देवी को पाकर इच्छानुसार उसका उपभोग करने लगे । लक्ष्मी के समान कान्तिमती गंगा नानाप्रकार से राजा शान्तनु को आनंदित कर रही थी । सभी प्रकार से शान्तनु की सेवा में उपस्थित उस दिव्य कामिनी के साथ रति भोग में राजा इतने आसक्त हो गये कि कितने ही वर्ष व्यतीत हो गये, उन्हें कुछ भी भान न हुआ । देवी गंगा के साथ रमण करते हुए राजा शान्तनु ने आठ तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया ।
जैसे – जैसे पुत्रों का जन्म होता जननी गंगा उन्हें अपने जल में बहा देती थी और कहती कि “ हे वत्स ! मैं तुम्हें शाप से मुक्त कर रही हूँ ।” इस तरह उसने अपने सात पुत्रों को जल में डुबोकर मार डाला ।
राजा शान्तनु अपनी पत्नी के इस व्यवहार से बहुत दुखी थे । लेकिन वह उसे कुछ कह भी नहीं सकते थे । उन्हें हमेशा यह डर लगा रहता था कि कहीं यह मुझे छोड़कर न चली जाये ।
जब आठवें पुत्र का जन्म हुआ तो देवी गंगा प्रसन्न होकर अपने इस पुत्र को भी जल में डुबोने चल दी । किन्तु इस बार राजा शान्तनु ने दुखी होकर अपने पुत्र के प्राण बचाने की इच्छा से देवी गंगा से कहा – “ अरी हत्यारिनी ! अपने पुत्र को क्योंकर मारती है । रे पुत्र घातिनी तुझे दया नहीं आती ? बता तू कौन है और कहाँ से आई ? तुझे अपने ही पुत्रों की हत्या करने का बहुत ही भारी पाप लगा है ।”
तब देवी गंगा बोली – “ हे राजन ! मैं तुम्हारे इस पुत्र को नहीं मारूंगी । किन्तु अब मेरे यहाँ रहने का समय भी समाप्त हो चूका है । मैं जह्न की पुत्री और महर्षियों द्वारा सेवित गंगा हूँ । मैं वसुओं को शाप से मुक्त करने के लिए आपके साथ रह रही थी । आपके जो आठ पुत्र हुए है यह आठ वसु देवता है । जो महर्षि वशिष्ठ के शाप से मनुष्य योनी में आये थे ।”
देवी गंगा बोली – “ हे भरतश्रेष्ठ ! आपके सिवाय कोई ऐसा राजा नहीं था जो उनका पिता हो सके और न ही मेरे सिवाय कोई ऐसी जननी थी, जो उन्हें अपने गर्भ में धारण कर सके । इसलिए मैं मानवी रूप में इस धरा पर आई हूँ । यह वसुओं की ही शर्त थी कि जन्म लेते ही उन्हें मैं मनुष्य योनी से मुक्त कर दूँ । ताकि आपव (महर्षि वशिष्ठ) के शाप से भी मुक्त हो जाये और उनका कल्याण भी हो जाये । हे भरतश्रेष्ठ ! आपका यह महातेजस्वी पुत्र गंगापुत्र नाम से विख्यात होगा ।”
महर्षि वशिष्ठ ने वसुओं को शाप क्यों दिया
तब शान्तनु ने पूछा – “ हे देवी ! ये आपव ऋषि कौन है और वसुओं ने ऐसा क्या किया था जो उन्हें मनुष्य योनी में आने का शाप मिला ? और तुम्हारे इस पुत्र ने ऐसा कोनसा कर्म किया जिससे इसे मनुष्य लोक में ही निवास करना पड़ेगा ?”
अपने पति के ऐसा पूछने पर देवी गंगा बोली – “ हे राजन ! प्राचीन काल में वरुण के पुत्र महर्षि वशिष्ठ ही आपव नाम से विख्यात थे । गिरिराज मेरु के पीछे उनका आश्रम है, जो विभिन्न जंगली फूलों, जीवों और पक्षियों से शोभायमान है । उसी वन में महर्षि वशिष्ठ तपस्या करते थे ।”
“ हे राजन ! एक बार दक्ष प्रजापति की पुत्री सुरभि ने महर्षि कश्यप के सहवास से एक गौ को जन्म दिया । जो समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली तथा समस्त जगत के कल्याण के लिए प्रकट हुई थी । महर्षि वशिष्ठ ने उसी गौ को कामधेनु के रूप में प्राप्त किया । कामधेनु उस तपसी वन में निर्भय होकर चरती थी ।”
“ हे राजन ! एक बार उस वन में वसु आदि सभी देवता पधारे हुए थे । सभी देवता अपनी स्त्रियों के साथ उस वन में विचरण कर रहे थे । तभी उन वसुओं में से एक की पत्नी ने कामधेनु नन्दिनी गौ को वन में विचरण करते हुए देखा । उस देवी ने अपने पति द्यो नामक वसु को वह गाय दिखाई और उसकी सुन्दरता का वर्णन करने लगी । तब उस वसु ने अपनी पत्नी से कहा – “ हे देवी ! यह दिव्य गाय महर्षि वशिष्ठ की है, जो उस उत्तम वन में निर्भय होकर विचरण करती है । जो मनुष्य इसका स्वादिष्ट दुग्ध का पान करेगा, वह दस हजार वर्षों तक जीवित रहेगा और उतने ही समय तक युवावस्था में स्थिर रहेगा । यह सुनकर उस देवी ने अपने तेजस्वी पति से कहा – “ हे प्राणनाथ ! मृत्युलोक में जितवती नाम की एक राजकुमारी मेरी सखी है । वह सुन्दर और युवा है और राजर्षि उशीनर की पुत्री है । हे देव ! उसी के लिए बछड़े सहित यह गाय लेने की मेरी बड़ी इच्छा है । अतः हे देव ! इस दिव्य गाय को आप शीघ्र ले आइये । जिससे मेरी वह सखी जरा, रोग और व्याधि से बची रह सके । आप यथाशीध्र मेरे इस मनोरथ को पूर्ण कीजिये । मेरे लिए इसे बढ़कर प्रिय अन्य कुछ भी नहीं है ।” अपनी पत्नी के ऐसे वचन सुनकर द्यो नामक उस वसु ने अपने भाई पृथु आदि को बुलाकर उनकी सहायता से बिना कुछ सोचे नन्दिनी गाय का अपहरण कर लिया ”
इधर कुछ समय बाद महर्षि वशिष्ठ संध्या करके कंदमूल लेकर आश्रम पर आये । जब उन्होंने अपनी प्रिय नन्दिनी गाय को कहीं नहीं देखा तो वह उसकी खोज करने लगे । बहुत खोजने पर भी महर्षि को जब वह गाय नहीं मिली तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखा । तब उन्हें पता चला कि मेरी कामधेनु का अपहरण वसुओं ने किया है । यह देखते ही उन्होंने कुपित होकर तत्काल वसुओं को शाप दे दिया कि “ जिन वसुओं ने मेरी गाय का अपहरण किया है, वे सबके सब मनुष्य योनि में जन्म लेंगे ।”
जब वसुओं को यह पता चला कि महर्षि वशिष्ठ ने उनको शाप दे दिया है तो वह सबके सब उनके आश्रम पर पहुँच गये । उन्होंने महर्षि को प्रसन्न करने की खूब चेष्टा की किन्तु महर्षि का कृपा प्रसाद नहीं पा सके । तब उन्होंने शाप से मुक्त होने का उपाय पूछा तब महर्षि बोले – “ मैंने तुम सबको शाप दिया है किन्तु तुमलोग तो प्रतिवर्ष एक – एक करके शाप से मुक्त हो जाओगे किन्तु यह द्यो नाम का जो वसु है, जिसके कारण तुम सबको शाप मिला है । यह दीर्घकाल तक मनुष्यलोक में निवास करेंगा । किन्तु इसके कोई संतान नहीं होगी । यह धर्मात्मा और विद्वान होगा तथा अपने पिता के हित के लिए स्त्रीसुख का परित्याग कर देगा ।” इतना कहकर महर्षि वशिष्ठ वहाँ से चले गये ।
देवी गंगा बोली – “ हे राजन ! तब यह सभी वसु मेरे पास आये और उन्होंने मुझसे जो निवेदन किया था सो मैंने किया । किन्तु भरतश्रेष्ठ ! यह जो शिशु बचा है, यह वही द्यो नामक आठवाँ वसु है जो गंगापुत्र नाम से विख्यात होगा और दीर्घकाल तक मनुष्यलोक में निवास करेंगा । अभी यह शिशु है अतः इसे मैं अपने साथ ले जा रही हूँ किन्तु बड़ा होने पर ये आपसे पास आ जायेगा । अब मैं जा रही हूँ और जब आप बुलाएँगे तब ही आपके सामने उपस्थित होउंगी ।” इतना कहकर गंगा उस नवजात शिशु को लेकर अंतर्ध्यान हो गई । इधर शान्तनु दुखी होकर अपने नगर लौट आये । आगे चलकर वही बच्चा देवव्रत और गंगापुत्र नाम जाना जाने लगा । ब्रह्मचर्य की भीषण प्रतिज्ञा करने के कारण भीष्म नाम से विख्यात हुआ । यह था गंगापुत्र भीष्म के जन्म का रहस्य ।
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