तथागत बुद्ध का एक नया शिष्य बना – आनंद । वह ज्ञान की प्राप्ति के लिए अति उत्सुक था । वह अक्सर तथागत से एक प्रश्न पूछता रहता था कि “ भगवान् ! मुझे ज्ञान की प्राप्ति कब होगी ?” तथागत हमेशा उचित समय आने पर प्रश्न का उत्तर दूंगा, ऐसा कहकर बात खत्म कर देते थे ।
एक दिन आनंद और तथागत भिक्षा के लिए एक गाँव जा रहे थे । वह एक झरने से गुजरे जहाँ हाल ही में कुछ पशु नहाकर निकले थे । तथागत और आनंद थोड़े ही आगे निकले और एक पेड़ की छाँव में बैठ गये ।
तथागत बोले – “ वत्स आनंद ! पीछे वाले झरने से जरा पानी ले आओ । मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है ।” आनंद ने कमण्डलु उठाया और पानी लेने चल दिया । आनंद जब झरने के पास पहुँचा तो देखा कि उसमें बिलकुल गन्दा पानी आ रहा है । आनंद वापस आया और बोला – “ भगवान् ! झरने का पानी तो बिलकुल गन्दा है । आप आज्ञा दे तो मैं नदी से ले आऊ ?”
तथागत ने कहा – “ नहीं ! तुम झरने से ही लाओ । अब ठीक हो गया होगा ।” आनंद फिर से झरने पर गया । इस बार पानी थोड़ा ठीक था लेकिन फिर भी पीने योग्य नहीं था । अतः आनंद फिर से खाली हाथ ही लौट आया और बोला – “ भगवान् ! पानी तो अब भी गन्दा है । मैं नदी से ले आता हूँ ।”
तथागत बोले – “ तुम थक गये होगे, थोड़ी देर विश्राम कर लो । फिर ले आना ” थोड़ी देर बाद तथागत ने फिरसे उसे झरने पर पानी लेने भेजा । वह नाराज हुआ लेकिन गुरु की आज्ञा का पालन तो करना ही था । वह जैसे ही झरने पर पहुंचा । इस बार पानी एकदम स्वच्छ था । उसने अपना कमण्डल भरा और ख़ुशी – ख़ुशी चल दिया ।
तथागत ने पूछा – “ अब पानी कैसा है ? आनंद !” उसने कहा – “ अब तो स्वच्छ है, भगवान्, लेकिन ये चमत्कार कैसे हुआ ?”
तथागत बोले – “ आनंद ! ये कोई चमत्कार नहीं, सब्र का फल है । जानवरों ने पानी में हलचल की जिससे नीचे की धुल और मिट्टी ऊपर आ गई और पानी गन्दा हो गया । जब पहली बार तुम झरने पर गये, उस समय धुल मिट्टी पानी में घुली होने से पानी गन्दा दिखाई दे रहा था । जब तीसरी बार गये तब तक मिट्टी नीचे सतह में जम गई और पानी स्वच्छ हो गया । यही तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर है, जो तुम मुझसे अक्सर पूछते रहते हो ।”
आनंद बोला – “ कैसे भगवान् ?”
तथागत बोले – “ आनंद ! हमारा मन भी उसी झरने की तरह है । जिसमें प्रतिदिन कुविचारों के कितने ही पशु उछलकूद मचाते है । इन कुविचारों और कुसंस्कारों के कारण तुम्हारा मन अस्थिर और अपवित्र हो चूका है । तप – साधना के माध्यम से हम उन कुविचारों और कुसंस्कारों के पशुओं को मन से बाहर करते है और ध्यान से मन को स्थिर, शांत और पवित्र होने की प्रतीक्षा करते है । जब तक मन स्थिर, शांत और पवित्र नहीं हो जाता, ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए आनंद ! मन के शांत होने तक तुम्हें सब्र रखना होगा । जब तुम्हारा मन स्थिर होकर समाधिस्थ हो जायेगा । तब तुम्हें स्वतः आत्मज्ञान की उपलब्धि हो जाएगी ।”
इस कहानी से पता चलता है कि तथागत में अपने शिष्यों को दैनिक जीवन के दृष्टान्तों से शिक्षा देने की अद्भुत कला थी । ऐसा ही एक दृष्टान्त इस प्रकार है –
मोक्ष का महामंत्र
एक बार तथागत अपने कुछ शिष्यों के साथ भिक्षा के लिए नगर में भ्रमण कर रहे थे । तभी उन्होंने देखा कि एक घर में एक स्त्री दर्पण के सामने बैठकर बड़े इत्मिनान से अपना चेहरा देख रही थी । वह बड़ी तत्परता से अपने चेहरे को संवारने में लगी हुई थी । उसे देखकर बुद्ध ने उसदिन अपने शिष्यों को उपदेश दिया ।
तथागत बोले – “ भिक्षुओं ! आज मैंने एक ऐसी स्त्री को देखा जो बड़े ध्यान से अपने चेहरे की मलिनताओं को हटा रही थी और उसे बड़ी बारीकी से सुन्दर बना रही थी । इसे ही आत्मशोधन कहते है । इसके लिए तुम्हें जंगलों में भटकने की जरूरत नहीं । तुम्हारा अंतःकरण ही तुम्हारा सबसे बड़ा साथी और सहयोगी है । अपने अंतःकरण के दर्पण के सामने बैठ जाओ और देखो कि कहीं कोई कुविचार तो घर नहीं कर गया । देखो कि कहीं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे विकार तुम्हारे में छिपे तो नहीं बैठे । विकारों और कुसंस्कारों को बारीकी से देखो और निकाल फेंको । उस स्त्री की ही तरह जब तक तुम्हें अपनी आंतरिक सुन्दरता और निर्मलता पर संतोष न हो जाये, तब तक लगे रहो । जिस दिन तुम्हें यह संतोष हो जाये, उसी दिन समझ लेना तुम्हें परमपद और मोक्ष की प्राप्ति हो गई ।