एक समय की बात है । स्वर्णागीरी नामक नगर में एक स्वर्णप्रेमी राजा राज करता था । राजा का स्वर्ण के प्रति इतना अधिक मोह था कि उसने राज्य की बहुमूल्य वस्तुयें बेंच – बेंचकर राजकोष में सोना ही सोना इकठ्ठा कर लिया था । राजा का मंत्री बड़ा ही बुद्धिमान था । वह जानता था कि स्वर्ण बहुमूल्य जरुर है लेकिन राजकोष में धन – धान्य आदि दैनिक उपयोग की वस्तुएँ स्वर्ण से भी अधिक महत्वपूर्ण है । किन्तु जब भी मंत्री अपनी यह बात राजा को समझाता, राजा उल्टा मंत्री को सुना देता था ।
इस बात से मंत्री दुखी और उदास रहने लगा । एक दिन रात्रि में मंत्री ने सपना देखा कि राज्य में चारों ओर सोना ही सोना है, लेकिन लोग भूख से मर रहे है । एकाएक मंत्री की आंखे खुल गई उसने फिर से सोने की कोशिश की किन्तु वह करवटे ही बदलता रह गया, लेकिन उसे नींद नहीं आई । सुबह जब मंत्री की पत्नी ने मंत्री महोदय को उदास और दुखी देखा तो कारण पूछने लगी । पहले तो मंत्री ने मना किया लेकिन जब वह जिद करने लगी तो रात्रि के सपने का हाल और महाराज के स्वर्ण के प्रति मोह के बारे में उसने बताया ।
यह सब सुनकर वह बोली – “ इतनी सी बात को लेकर इतने दिन से परेशान हो, आपके महाराज के स्वर्ण का भुत मैं एक दिन में उतार सकती हूँ ।”
यह सुनकर मंत्री बड़ा खुश हुआ और बोला – “ कैसे ?”
तब वह बोली – “ उन्हें इच्छानुसार सोने की प्राप्ति करवाकर ।”
मंत्री बोला – “ मैं कुछ समझा नहीं ।”
तब वह बोली – “ आप तो महाराज को शिकार खेलने के लिए जंगल ले जाइये, बाकि सब आपको स्वतः समझ आ जायेगा ।” मंत्री अपनी पत्नी का सम्मान करता था और विश्वास भी, अतः उसने सोचा कि “यदि यह बोल रही है तो जरुर कोई खास बात होगी ।”
राजमहल जाकर उसने राजा से शिकार पर चलने का आग्रह किया । राजा भी अलमस्त तुरंत मान गया । राजा और मंत्री दोनों शिकार पर निकले । लेकिन उन्हें शिकार करने के लिए कोई जानवर नहीं मिला । भटकते – भटकते वह बहुत दूर निकल गये । तभी राजा को प्यास लगी । दोनों शिकार का विचार छोड़कर पानी की तलाश करने लगे ।
तभी अचानक उन्हें एक लकड़ियों के गट्ठर के पास बैठा एक बूढा साधू दिखाई दिया । गट्ठर इतना बड़ा था कि वह बुढा उसे उठा नहीं सकता था लेकिन फिर भी उसके पास बैठा था । राजा ने कहा – “ बाबा ! आप यहाँ अकेले इस गट्ठर के पास क्यों बैठे है ? क्या यह आपका है ?”
साधू बोला – “ सुबह से मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि कोई यह गठ्ठर मेरी कुटिया तक रखवा दे ।” राजा ने सोचा कि इस साधू की कुटिया में जरुर पीने का पानी होगा । अतः राजा और मंत्री दोनों ने साधू का लकड़ियों का गठ्ठर उठाया और बोले – “ चलिए बाबा ! आपका गठ्ठर हम रखवा देते है ।”
कुटिया में घुसते ही राजा ने पीने का पानी माँगा । साधू ने पीने का पानी दिया और बोला – “ हे राजा ! तूने मेरी मदद की, इसलिए तू जो चाहे सो वरदान मांग ले ।”
राजा के दिमाग में दिनरात सोना ही घूमता था । अतः सहज ही उसके मुंह से निकल गया कि “मुझे ऐसा वरदान दीजिये कि मैं जिस वस्तु को स्पर्श करूँ वो सोने की हो जाये ।”
साधू ने एक बार और पूछा – “ क्या तुम सच में ऐसा वरदान चाहते हो ?” तो राजा बोला – “ हाँ ! महाराज ! मैं ऐसा ही वरदान चाहता हूँ ।”
साधू ने कहा – “ तथास्तु ! सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ तूम जिस किसी को भी स्पर्श करोगे, वो सोने का हो जायेगा ।” राजा बहुत खुश हुआ । प्रत्येक वस्तु को सोना बनाने के उत्साह में पूरी रात उसे नींद नहीं आई ।
लेकिन मंत्री अब भी दुविधा में था । “ अब तो महाराज के पागल होने में कोई संदेह नहीं ।”- ऐसा सोचकर वह अपनी पत्नी पर मन ही मन गुस्सा हो रहा था ।
इधर प्रातःकाल राजा ने सूर्य की पहली किरण के साथ अपने पलंग का स्पर्श किया तो वह पूरा सोने का हो गया । राजा बहुत खुश हुआ । वह दौड़ – दौड़कर पुरे महल की दीवारों को सोने की बनाने लगा । महल सोने से चमकने लगा । तभी राजा को अपनी नन्हीं की राजकुमारी दिखी । ख़ुशी के मारे राजा उसे बाहों में भर लिया लेकिन देखते ही देखते वह सोने की मूर्ति में तब्दील हो गई ।
अपनी हंसती खेलती गुड़िया राजा के हाथों में सच की गुड़िया बनकर रह गई । यह देखकर राजा के होश उड़ गये । इतने में सामने से महारानी आ गई । उसने भी अपनी बेटी को सोने की मूर्ति बनते देखा तो जोर – जोर से रोने लगी । राजा ने उसे सांत्वना देने के लिए जैसे उसके सिर पर हाथ रखा । वो भी सोने की मूर्ति बन गई ।
राजा फुट – फुटकर रोने लगा । इतने में मंत्री महोदय भी वहाँ आ गये । राजा को दुःख और विषाद में डूबा और राजकुमारी और महारानी को सोने की मूर्तियाँ देखकर सारा मांजरा समझ गया ।
उसने महाराज को समझाया कि “ महाराज ! देख लिया अपने स्वर्ण के प्रति मोह का नतीजा । आप पूरी दुनिया को सोने का बना सकते है लेकिन सोने की दुनिया आपको ख़ुशी नहीं दे सकती । जीवन में सभी चीजों का अपना – अपना महत्त्व है ।”
तब राजा बोला – “ महामंत्री ! मैं अब अपने जीवन में स्वर्ण को देखूंगा भी नहीं, लेकिन पहले मुझे इस श्राप रूपी वरदान से मुक्त करवाओ ।” मंत्री ने राजा को किसी को वस्तु को छूने से मना किया और उसे रथ में डालकर वापस उसी साधू के पास ले गया ।
राजा को वापस आता देख साधू मुस्कुराने लगा । साधू ने अपना कमण्डलु उठाया और कुछ जल लेकर राजा पर छिड़का और वह उस श्राप रूप वरदान से मुक्त हो गया । साधू ने राजा को कमण्डलु राजा को दिया और कहा – “ वरदान से सोना बनी जिस वस्तु को वापस उसके वास्तविक रूप में चाहते हो, उसपर ये जल छिड़क देना । वह स्वर्ण के श्राप से मुक्त हो जाएगी ।”
इस तरह राजा ने उन सब वस्तुओं को वापस ठीक किया जिसको उसने सोना बनाया था ।
शिक्षा – दोस्तों ! इस कहानी का पात्र राजा हममें से हर कोई है जो धन के प्रति आकंठ मोह में डूबा है । आजकल तो लोग धन के प्रति अपनी बढ़ती महत्वाकांक्षा की पूर्ति करने के लिए अपनों को दफनाते देर नहीं करते । दहेज़ के लोभी क्रूर लोग कितनी ही मासूम बहु बेटियों को मौत के घाट उतार देते है । जरा सोचिये ! अगर आपने मानवीय मूल्यों को खोकर धन को प्राप्त कर भी लिया तो उसका क्या उपयोग ?