एक नगर में एक सिद्ध महात्मा रहते थे । आत्मज्ञान की खोज में भटकता हुआ एक नवयुवक एक दिन उनके पास आया । महात्माजी की एक शर्त थी कि वह उसे आत्मज्ञान का उपदेश तभी देंगे, जब उसे योग्य समझेंगे । इस तरह वह युवक कुछ दिन के लिए उन्हीं के आश्रम में रहकर उनकी सेवा करने लगा । वह प्रतिदिन नदी से जल लाकर आश्रम के जलपान की व्यवस्था करता था । महात्माजी के हवन के लिए जंगल से सुखी लकड़ियाँ बिनकर लाता था ।
इस तरह उस नवयुवक की निष्काम सेवा से महात्माजी बहुत प्रसन्न थे । अतः महात्माजी बोले – “ बेटा ! आत्मकल्याण ही जीवन का असली उद्देश्य है, अतः हर बुद्धिमान मनुष्य को इसे अवश्य पूरा करना चाहिए ।”
यह सुनकर युवक बोला – “ गुरूजी ! अगर मैं वैरागी हो गया तो मेरी जिम्मेदारियों का निर्वहन कौन करेगा ? मेरे माता – पिता कैसे रहेंगे ?, मेरी पत्नी मुझसे बहुत प्रेम करती है । वो मेरे बिना नहीं रह पायेगी ।”
महात्माजी बोले – “ बेटा ! मैं नहीं कहता कि तू मेरी तरह सन्यासी हो जा लेकिन प्रत्येक मनुष्य को कुछ समय घर परिवार से दूर रहकर आत्मकल्याण हेतु लगाना चाहिए ।”
युवक बोला – “ महात्माजी ! बात तो ठीक है, आपकी ! लेकिन यदि मैं एक दिन के लिए भी गायब रहूँ तो मेरे माता – पिता और पत्नी पुरे गाँव में खोजबीन शुरू कर देते है । आपके पास आने के लिए भी मैंने उनको झूठ बोला कि व्यापार करने जा रहा हूँ । आठ – दस दिन लग सकते है । अगर घर – परिवार छोड़ने को बोल दिया तो मेरे माता – पिता का तो जीना मुश्किल हो जायेगा और मेरी पत्नी तो आत्महत्या ही कर लेगी ।”
मुस्कुराते हुए महात्माजी बोले – “ कोई नहीं मरने वाला है बेटा ! ये सब दिखावटी प्रेम है । अगर तुझे विश्वास नहीं है तो परीक्षा कर ले । तेरा मोह भी टूट जायेगा और तू वास्तविकता को भी समझ जायेगा ।” प्रेम की परीक्षा करने के लिए युवक राज़ी हो गया । महात्माजी ने उसे एक ऐसा प्राणायाम सिखाया जिससे श्वास को सूक्ष्म करके लगभग रोका जा सके । महात्माजी ने उसे घर जाकर बीमार होकर श्वास रोकने का आदेश दिया ।
महात्माजी के कहे अनुसार युवक घर आया और बीमार पड़ गया । आस –पास के वैद्यों को बुलाया गया, इतने में उसने श्वास को सूक्ष्म करके रोक लिया । जाँच करने पर वैद्यों ने उसे मृत घोषित कर दिया । युवक के मरने की बात पता चलते ही घर वाले चिल्लाने लगे । आस – पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गये और उसका क्रियाक्रम करने की तैयारी करने लगे ।
तभी हर हर महादेव का जयकारा लगाते हुए वह महात्मा वहाँ आ पहुंचे । महात्मा बोले – “ यह युवक विशेष है । इसे जिन्दा किया जा सकता है ।” महात्मा की यह बात सुनकर घर वाले खुश हो गये और आस – पड़ोस के लोग आश्चर्य से देखने लगे ।
महात्मा ने कहा – “ एक दूध का कटोरा लेकर आओ ।” जल्दी ही दूध का कटोरा लाकर महात्माजी को दे दिया । महात्माजी ने कुछ मन्त्र पढ़ा और उस कटोरे में चुटकीभर राख डाली और फिर बोले – “ जो कोई भी अपना जीवन इस युवक को देना चाहता है, वो ये दूध पी ले । यह दूध पीनेवाले व्यक्ति के मरते ही यह युवक जीवित हो जायेगा ।”
लेकिन अब समस्या ये थी कि ये दूध पिएगा कौन ? कुछ देर तो महात्माजी आंखे बंद किये कटोरा लेकर बैठे रहे । जब कोई आगे नहीं आया तो महात्माजी उस युवक के माता – पिता के पास गये और बोले – “ आपका बेटा है, जीवन दान नहीं देंगे इसे ?”
माता – पिता बोले – “ हमारे मरने के बाद इसके जिन्दा होने का क्या फायेदा और होगा भी या नहीं, इस बात का क्या प्रमाण है । अगर हम जिन्दा रहे तो बेटे तो और भी हो जायेंगे ।”
तब महात्माजी कटोरा लेकर उस युवक की धर्मपत्नी के पास गये और बोले – “ बेटी ! क्या तूम भी अपने प्राणनाथ के प्राण नहीं बचाओगी ?”
पत्नी बोली – “ महात्माजी ! इस दुनिया में जन्मा हर व्यक्ति मरता है । ईश्वर ने सबको अपने – अपने हिस्से की जिन्दगी दी है । अगर मैं मरकर इनको जिन्दा कर भी दूँ तो भी इनके लिए मेरी कोई कीमत नहीं होगी । क्योंकि पुत्रप्राप्ति के लिए ये दूसरा विवाह कर लेंगे । इससे अच्छा तो यही है कि मैं अपने मायके चली जाऊ और दूसरा विवाह करके सुख से अपना जीवन व्यतीत करूँ ।”
तब महात्माजी ने आस – पड़ोस और अंत्येष्टि पर आये रिश्तेदारों की ओर कटोरा बढ़ाया लेकिन सब ने मुंह फेर लिया । तब महात्माजी बोले – “चलो ! अगर कोई पीने को तैयार नहीं है तो मैं ही पी लेता हूँ ।” इतना सुनते ही सब आपस में चर्चा करने लगे – “ हाँ ! संतो का जीवन तो होता ही परोपकार के लिए है । इनका त्याग व्यर्थ नहीं जायेगा, महात्माजी के नाम पर हम नदी, तालाब और नहरे बनवा देंगे । इनका नाम विश्व इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जायेगा । आप धन्य हो महाराज ! आप धन्य हो ”
महात्माजी ने दूध पिया और युवक को झकझोरते हुए बोला – “ उठ बेटा उठ ! हो गया ना तेरे भ्रम का निवारण । देख लिया न, कौन है जो तेरे लिए प्राण देगा ।” युवक उठा और महात्माजी के साथ चल दिया । घर परिवार वालों ने रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन उसने पलटकर एक पल के लिए भी पीछे नहीं देखा । अब उसके झूठे प्रेम का मोह टूट चूका था । अब वह आत्मकल्याण की साधना करने निकल पड़ा था ।
शिक्षा – इस कहानी उद्देश्य केवल इतना है कि अपनों से प्रेम रखे, मोह नहीं । अपने कर्तव्यों का पालन करना तो जरुरी है ही लेकिन उसी के साथ यह भी ध्यान होना चाहिए कि आत्मोन्नति भी हमारा कर्तव्य है, जिसको केवल और केवल हम ही कर सकते है। क्योंकि इस लोक के साथी केवल इस लोक तक ही सीमित है । कृपया इस कहानी को अन्यथा न ले । क्योंकि जरुरी नहीं कि यह कहानी सबके साथ सही बैठे ।