यह प्रश्न आपके दिमाग में अवश्य आये होंगे कि महारानी कुंती का ज्येष्ठ पुत्र और परम तेजस्वी सूर्य का अंश होते हुए कर्ण को महाभारत में इतना अपमान और ज़िल्लत क्यों सहनी पड़ी ? आखिर ऐसी कोनसी दुश्मनी थी अर्जुन और कर्ण में जो उसने कभी भी अपने बड़े भाई को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा ? आखिर क्या वजह थी कि कर्ण सूर्य देवता का अंश होते हुए दुर्योधन जैसे राक्षस के पाप में भागीदार बना ? उम्मीद है इस पोस्ट में आपके सारे सवालों के जवाब मिल जाये !
जब किसी का जन्म ही विवादस्पद हो और आपको लगता है कि प्रत्यक्ष रूप से किसी के साथ अन्याय हो रहा है तो जान लीजिये । उसके साथ कोई न कोई पूर्व जन्म का रहस्य अवश्य है । कर्ण के रहस्यमयी जन्म और मृत्यु का उत्तर भी महाभारत में कुछ ऐसे ही मिलता है ।
त्रेतायुग में दम्बोद्धाव नामक एक राक्षस हुआ करता था । उसने सूर्यदेव की कड़ी तपस्या करके उन्हें प्रसन्न कर लिया और अमरता का वरदान मांगने लगा । सूर्यदेव ने अमरता का वरदान देने से साफ मना कर दिया तो उसने कहा – “ तो फिर मुझे ऐसे एक सहस्त्र दिव्य कवचों की सुरक्षा दीजिये, जिनमें से किसी एक कवच को केवल वही तोड़ सके, जिसने एक हजार वर्ष की तपस्या की हो और जो भी कवच को तोड़ेगा वो तुरंत मृत्यु को प्राप्त हो ।”
सूर्य देवता जानते थे कि यह राक्षस मेरे वरदान का दुरुपयोग करने वाला है लेकिन वह वचन देने को मजबूर थे । अतः उन्होंने उस राक्षस को वह विचित्र वरदान दे डाला । सहस्त्र कवचों से सुरक्षित होने के बाद दम्बोद्धाव का नाम सहस्त्र कवच पड़ गया ।
अपनी शक्ति के अनुसार वरदान पाते ही उसने उत्पात मचाना शुरू कर दिया । सहस्त्र कवच के अत्याचार से तीनों लोकों में त्राहि – त्राहि मच गई । सभी देवता मिलकर इस विचित्र राक्षस से निजात के लिए भगवान विष्णु के पास गये । भगवान विष्णु ने सभी को आश्वासन देकर विदा किया ।
उसी समय सती के पिता दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री मूर्ति का विवाह ब्रह्माजी के मानस पुत्र धर्म से किया । भगवान विष्णु ने मूर्ति के दो जुड़वाँ बच्चों के रूप में जन्म लिया । जिन्हें नर और नारायण नाम दिया गया । दो शरीर होते हुए दोनों में एक ही आत्मा निवास करती थी ।
कालांतर में दोनों भाई बड़े हुए । एक भाई तपस्या के लिए वन में चला गया और एक भाई ने दम्बोद्धाव राक्षस को युद्ध के लिए ललकारा । अट्टहास करते हुए दम्बोद्धाव बोला – “ तुच्छ नर ! तू नहीं जानता कि मुझे मारने के लिए मेरा कवच तोड़ना जरुरी है और मेरा कवच केवल वही तोड़ सकता है, जिसने एक सहस्त्र वर्ष तपस्या की हो, ऐसा मुझे सूर्य का वरदान है ।”
नर ने मुस्कुराते हुए कहा – “ रे दुष्ट राक्षस ! तू भी नहीं जानता कि हम दो भाई है और हमारी आत्मा एक ही है, मेरे भ्राताश्री नारायण तप कर रहे है और मैं तुझे युद्ध के लिए ललकारता हूँ । आ मुझसे युद्ध कर ।”
दोनों में घमासान युद्ध शुरू हुआ । दम्बोद्धाव को यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि नारायण के तप के साथ नर की शक्ति बढ़ती जा रही थी । हजार वर्ष का समय पूर्ण होते ही नर ने सहस्त्र कवच का एक कवच तोड़ डाला । लेकिन कवच टूटते ही सूर्य के वरदान के अनुसार नर की मृत्यु हो गई ।
तभी नर का भाई नारायण सामने से दौड़ा चला आ रहा था । दोनों भाई जुड़वाँ थे अतः सहस्त्र कवच यह देखकर दंग रह गया कि ये अभी तो मृत्यु को प्राप्त होकर फिरसे कैसे दौड़ा चला आ रहा है ? तभी उसने देखा कि नर का शरीर तो उसके सामने ही पड़ा था । वह नर का भाई नारायण था, जो अपने भाई की ओर दौड़ा चला आ रहा था ।
नारायण को अपने भाई की ओर जाता देखा अट्टहास करता हुआ सहस्त्र कवच बोला – “ तुम्हें अपने मुर्ख भाई को समझाना चाहिए था, बेवजह मारा गया ।”
नारायण शांतिपूर्वक अपने भाई के पास बैठा और मन्त्र पाठ किया, उसी क्षण नर उठ बैठा हुआ । यह देखकर सहस्त्र कवच आश्चर्य से देखने लगा । तब नारायण ने बताया कि उसने एक हजार वर्ष तक शिवजी की तपस्या की है जिससे उसे महामृत्युंजय मन्त्र की सिद्धि हुई है । उसी के प्रभाव से उसने अपने भाई को जीवित किया है ।
अब नारायण ने सहस्त्र कवच को ललकारा और नर को तपस्या में बिठा दिया । एक हजार वर्ष होने के बाद सहस्त्र कवच का दूसरा कवच भी टूट गया और नारायण की मृत्यु हो गई । तब नर ने आकर नारायण को पुनर्जीवित कर दिया ।
इस तरह यह चक्र चलता रहा और 999 बार युद्ध हुआ । एक भाई के मरते ही दूसरा उसे जीवित करके तपस्या पर बिठा देता । जब सहस्त्र कवच का आखिरी कवच बचा तो उसे लगा कि उसकी मृत्यु निकट है । अतः अपने प्राणों का मोह करके वह भगवान सूर्यदेव की शरण में भाग गया ।
नर और नारायण दोनों उसका पीछा करते हुए सूर्यलोक पहुंचे और सहस्त्र कवच के पाप गिनाकर उसे मृत्यु दण्ड देने का आग्रह करने लगे । किन्तु सूर्यदेव शरणागत की रक्षा करने की ज़िद पर अड़े रहे ।
अंततोगत्वा जब सूर्यदेव नहीं माने तो नारायण ने सूर्यदेव को श्राप दे दिया – “ हे सूर्य ! जिन दुष्कर्मों के दण्ड से आप इस दुष्ट की रक्षा का प्रयास कर रहे हो, आपको भी उन दुष्कर्मों का भागीदार होना पड़ेगा । इन कर्मों का फल भोगने के लिए आपको भी इस दुष्ट के साथ जन्म लेना पड़ेगा ।”
इस तरह सूर्यदेव ने त्रेतायुग में उस राक्षस को बचा लिया । त्रेतायुग समाप्त हुआ और द्वापर प्रारंभ हुआ ।
द्वापरयुग की बात है । वरदान की परीक्षा करने के लिए कुंती ने सूर्यदेव का आवाहन किया । सूर्यदेव प्रकट हुए और कर्ण का जन्म हुआ । लेकिन रहस्य की बात यह है कि तभी नारायण का सूर्य को दिया गया वह श्राप फलीभूत हुआ और कर्ण के रूप में सूर्य और दम्बोद्धाव दोनों ने जन्म लिया ।
सूर्य ने केवल अपना अंश भेजा था लेकिन श्राप के प्रभाव से दम्बोद्धाव का अंश भी कर्ण में विद्यमान था । यह ऐसे ही था जैसे नर और नारायण, दो शरीर होते हुए के आत्मा थे । उसी तरह कर्ण में सूर्य और दम्बोद्धाव दोनों की आत्मा अंश रूप से विद्यमान थी । दूसरी ओर त्रेता के नर और नारायण द्वापर में अर्जुन और श्रीकृष्ण बने ।
सूर्य के अंश के कारण ही कर्ण परम तेजस्वी और वीर था । जबकि दम्बोद्धाव के अंश के कारण ही कर्मफल के रूप में उसे अन्याय और अपमान सहना पड़ा । कर्ण का कवच वही आखिरी हजारवां कवच था जो दम्बोद्धाव के पास युद्ध के दौरान बचा रह गया था । यदि अर्जुन उस कवच को तोड़ता तो उसी क्षण उसकी मृत्यु तय थी । यह बात इन्द्रदेव को पता थी, इसलिए उन्होंने पहले ही कर्ण से कवच और कुंडल मांग लिए थे ।
अब तो आपको समझ में आ ही गया होगा । आखिर कर्ण को अन्याय और अपमान क्यों झेलना पड़ा । यह सब उसके पूर्वजन्म के कर्मों का फल था, जो उसने त्रेता युग में किये थे ।