पुरुवंश में जन्मे उशीनर देश के राजा शिवि बड़े ही परोपकारी और धर्मात्मा थे । जो भी याचक उसने द्वार जाता था, कभी खाली हाथ नहीं लौटता था । प्राणिमात्र के प्रति राजा शिवि का बड़ा स्नेह था, अतः उनके राज्य में हमेशा सुख – शांति और स्नेह का वातावरण बना रहता था । राजा शिवि हमेशा ईश्वर की भक्ति में लीन रहते थे । राजा शिवि की परोपकार शीलता और त्याग वृति के चर्चे स्वर्गलोक तक प्रसिद्ध थे ।
देवताओं के मुख से राजा शिवि की इस प्रसिद्धि के बारे में सुनकर इंद्र और अग्नि को विश्वास नहीं हुआ । अतः उन्होंने उशीनरेश की परीक्षा करने की ठानी और एक युक्ति निकाली । अग्नि ने कबूतर का रूप धारण किया और इंद्र ने एक बाज का रूप धारण किया । दोनों उड़ते – उड़ते राजा शिवि के राज्य में पहुँचे ।
उस समय राजा शिवि एक धार्मिक यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे । कबूतर उड़ते – उड़ते आर्तनाद करता हुआ राजा शिवि की गोद में आ गिरा और मनुष्य की भाषा में बोला – “ राजन ! मैं आपकी शरण आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये ।”
थोड़ी ही देर में कबूतर के पीछे – पीछे बाज भी वहाँ आ पहुँचा और बोला – “ राजन ! निसंदेह आप धर्मात्मा और परोपकारी राजा है । आप कृतघ्न को धन से, झूठ को सत्य से, निर्दयी को क्षमा से और क्रूर को साधुता से जीत लेते है, इसलिए आपका कोई शत्रु नहीं और आप अजातशत्रु नाम से प्रसिद्ध है । आप अपकार करने वाले का भी उपकार करते है, आप दोष खोजने वालों में भी गुण खोजते है । ऐसे महान होकर आप यह क्या कर रहे है ? मैं क्षुधा से व्याकुल होकर भोजन की तलाश में भटक रहा था । तभी संयोग से मुझे यह पक्षी मिला और आप इसे शरण दे रहे है । यह आप अधर्म कर रहे है । कृपा करके यह कबूतर मुझे दे दीजिये । यह मेरा भोजन है ।”
इतने में कबूतर बोला – “ शरणार्थी की प्राण रक्षा करना आपका धर्म है । अतः आप इस बाज की बात कभी मत मानिये । यह दुष्ट बाज मुझे मार डालेगा ।”
दोनों की बात सुनकर राजा शिवि बाज से बोले – “ हे बाज ! यह कबूतर तुम्हारे भय से भयभीत होकर मेरी शरण आया है, अतः यह मेरा शरणार्थी है । मैं अपनी शरण आये शरणार्थी का त्याग कैसे कर सकता हूँ ? जो मनुष्य भय, लोभ, ईर्ष्या, लज्जा या द्वेष से शरणागत की रक्षा नहीं करते या उसे त्याग देते है । सज्जन लोग उनकी निंदा करते है और उनको ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है । जैसे हमें अपने प्राण प्यारे है, वैसे ही सभी जीवों को अपने प्राण प्यारे है । समर्थ और बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि असमर्थ व मृत्युभय से भयभीत जीवों की रक्षा करें । अतः हे बाज ! मृत्यु के भय से भयभीत यह कबूतर मैं तुझे नहीं दे सकता । इसके बदले तुम जो चाहो खाने के लिए मांग सकते हो । मैं तुझे वह अभीष्ट वस्तु देने को तैयार हूँ ।”
तब बाज बोला – “हे राजन ! मैं क्षुधा से पीड़ित हूँ । आप तो जानते ही है, भोजन से ही जीव उत्पन्न होता है और बढ़ता है । यदि मैं क्षुधा से मरता हूँ तो मेरे बच्चे भी मर जायेंगे । आपके एक कबूतर को बचाने से कई जीवों के प्राण जाने की संभावना है । हे राजन ! आप ऐसे कैसे धर्म का अनुसरण कर रहे है जो अधर्म को जन्म देने वाला है । बुद्धिमान मनुष्य उसी धर्म का अनुसरण करते है जो दुसरे धर्म का हनन न करें । आप अपने विवेक के तराजू से तोलिये और जो धर्म आपको अभीष्ट हो वह मुझे बताइए ।”
राजा शिवि बोले – “ हे बाज ! भय से व्याकुल हुए शरणार्थी की रक्षा करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । जो मनुष्य दया और करुणा से द्रवित होकर जीवों को अभयदान देता है, वह देह के छूटने पर सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है । धन, वस्त्र, गौ और बड़े बड़े यज्ञों का फल यथासमय नष्ट हो जाता है किन्तु भयाकुल प्राणी को दिया अभयदान कभी नष्ट नहीं होता । अतः मैं अपने सम्पूर्ण राज्य और इस देह का त्याग कर सकता हूँ, परन्तु इस भयाकुल पक्षी को नहीं छोड़ सकता ।” हे बाज ! तुझे आहार ही अभीष्ट है सो जो चाहो सो आहार के लिए मांग लो ।”
बाज बोला – “ हे राजन ! प्रकृति के विधान के अनुसार कबूतर ही हमारा आहार है, अतः आप इसे त्याग दीजिये ।”
राजा बोला – “ हे बाज ! मैं भी विधान के विपरीत नहीं जाता । शास्त्र कहता है दया धर्म का मूल है, परोपकार पूण्य है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है । अतएव तुम जो चाहो सो दे सकता हूँ, परन्तु ये कबूतर नहीं दे सकता ।”
तब बाज बोला – “ ठीक है राजन ! यदि आपका इस कबूतर के प्रति इतना ही प्रेम है तो मुझे ठीक इसके बराबर तोलकर अपना मांस दे दीजिये, जिससे मैं अपनी क्षुधा शांत कर सकूं । मुझे इससे अधिक और कुछ नहीं चाहिए ”
प्रसन्न होते हुए राजा शिवि बोला – “ हे बाज ! तुम जितना चाहो, उतना मांस मैं देने को तैयार हूँ । यदि यह क्षणभंगुर देह धर्म के काम न आ सके तो इसका होना व्यर्थ है ।” यह कहकर राजा ने तराजू मंगवाया और उसके एक पलड़े में कबूतर को बिठा दिया और दुसरे पलड़े में वह अपना मांस काटकर रखने लगे । लेकिन कबूतर का पलड़ा जहाँ का तहाँ ही रहा ।
तब अंत में राजा शिवि स्वयं उस पलड़े में बैठ गये और बोले – “हे बाज ! ये लो मैं तुम्हारा आहार तुम्हारे सामने बैठा हूँ ।” इतने में आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी, मृदंग बजने लगे । स्वयं भगवान अपने भक्त के इस अपूर्व त्याग को देखकर प्रसन्न हो रहे थे । यह देखकर राजा शिवि विस्मय से सोचने लगे कि इस सबका क्या कारण हो सकता है ? इतने मैं वह दोनों पक्षी अंतर्ध्यान हो गये और अपने असली रूप में प्रकट हो गये ।
इंद्र ने कहा – “ हे राजन ! आपके जैसा धर्म परायण और त्यागी मैंने कभी नहीं देखा । मैं इंद्र हूँ जो बाज बना था और ये अग्नि है जो कबूतर बना था । हम दोनों तुम्हारे त्याग की परीक्षा लेने आये थे । हे राजन ! ऐसे मनुष्य विरले ही होते है जो दूसरों उपकार के लिए अपने प्राणों का भी मोह न करें । ऐसा मनुष्य उस लोक को जाता है, जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता है । अपना पेट पालने के लिए तो पशु भी जिते है, किन्तु अभिनंदनीय तो वही मनुष्य है जो दूसरों के हित के लिए जिता है ।” इतना कहकर इंद्र और अग्नि स्वर्ग को चले गये ।
राजा शिवि ने अपना यज्ञ पूरा और कई वर्षो तक पृथ्वी का राज्य भोगने के बाद परमपद को प्राप्त हुए ।
महाराज शिवि पुरू वंश के राजा हुए। ऐसा उल्लेख किया गया है। जो मध्य प्रदेश में रहा है।
शिवी प्रतापी धर्म परायण सम्राट थे। वह श्री राम जी के पूर्वज थे। अयोध्या राज्य चक्रवर्ती सम्राट ओं का राज्य रहा है। यहां के राजा दिलीप, हरिश्चंद्र, शिवि, मांधाता, पृथु, दशरथ आदि प्रतापी राजा रहे।