मन चंचल है । मन वायु से भी तीव्र है । मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है । यह तीनों वाक्यांश आपने अवश्य सुने होंगे । लेकिन क्या आप जानते है कि मन चंचल क्यों है ?
आप जानते है तो अच्छी बात है । यदि नहीं जानते है तो आइये आज के इस लेख में जानते है कि मन चंचल क्यों है ?
यदि आपने मेरे पिछले लेख पढ़े हो तो आपको पता होगा कि “मन है क्या चीज़”। आपकी ही कुछ आदतों, इच्छाओं और संस्कारों के समुच्चय को मन कहते है ।
अब यहाँ आदतों, इच्छाओं और संस्कारों के आधार पर मन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – एक तो अच्छा मन, दूसरा बुरा मन । अच्छा मन वह जो आत्मा के अनुकूल काम करें, जो हमें उत्थान की ओर ले जाये । बुरा मन वह जो आत्मा के प्रतिकूल काम करें, जो हमें पतन की ओर ले जाये । वास्तव में दोनों ही मन आत्मा की शक्ति से चलते है । किन्तु अच्छे मन पर आत्मा का अधिपत्य होता है और बुरे मन पर आत्मा का आंशिक अधिपत्य होता है या यूँ कह लीजिये कि कोई अधिपत्य नहीं होता ।
अब आप मन को समझ चुके होंगे । अब हम बात करते है चंचलता की । चंचलता जल का गुण है । जल के इसी गुण से तुलना करके मन को चंचल कहा गया है । अगर सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाये तो मन और जल लगभग समानांतर है । मेरे कहने का मतलब है कि हम जल के गुण, कर्म और स्वभाव को समझकर काफी हद तक मन को समझ सकते है । कैसे ? आइये देखते है !
मन चंचल क्यों होता है ? इस प्रश्न का उत्तर आप स्वयं जानते हो । इसे समझने के लिए अपना प्रश्न बदलकर स्वयं से पूछो कि “ जल चंचल क्यों होता है ?”
जल चंचल तब होता है, जब वह नीचे की ओर प्रवाहित हो । अगर जल को स्थिर करना है तो आपको उसे सीमा बंध करना पड़ेगा । यदि उसे ऊपर की ओर चढ़ाना है तो उसे सीमित दायरे से प्रवाहित करना पड़ेगा । लेकिन यदि उसे नीचे की ओर प्रवाहित करना है तो आपको कुछ भी करने की जरूरत नहीं होगी । केवल छोड़ दीजिये ।
ठीक ऐसे ही मन चंचल तब होता है जब वह पतन की ओर अग्रसर हो । यदि मन को स्थिर करना है, निश्छल करना है तो उसे सीमित दायरे में रखना होगा । यदि को उत्थान की ओर अग्रसर करना है तो सीमित दायरे से अभीष्ट लक्ष्य (इष्ट) की ओर लगाना होगा ।
जिस तरह जल विभिन्न नदी और नहरों से होते हुए जब तक समुन्द्र में नहीं मिल जाता तब तक स्थिर नहीं होता । उसी तरह मन भी जब तक इन्द्रियों रूपी नदी और नहरों में भटक रहा है, तब तक स्थिर नहीं हो सकता । किन्तु जब वह आनंद के सागर परमानन्द में मिल जाता है तो पूर्णतः स्थिर होकर समाधि में चला जाता है । इसी अवस्था को मोक्ष और जीवन मुक्ति कहते है ।
मन चंचल क्यों होता है ? कहानी
एक बार गुरुकुल में एक नया शिष्य आया । आश्रम के नियमानुसार उसे भी प्रतिदिन संध्या – उपासना करनी थी । ध्यान संध्या का अभिन्न अंग है । लेकिन नये शिष्य का ध्यान बिलकुल नहीं लगता था । कुछ दिन तो वह जबरजस्ती आंखे बंद करके बैठा रहा लेकिन अंततः एक दिन उसके सब्र का बांध टूट गया । वह तुरंत उठकर अपने गुरुदेव के पास गया और बोला – “ गुरुदेव ! ये संध्या में ध्यान की क्या आवश्यकता है ? ।
गुरुदेव बोले – “ वत्स ! ध्यान मन को साधने के लिए अनिवार्य है ।”
शिष्य बोला – “ किन्तु गुरुदेव ! क्या मन को साधना जरुरी है ? मेरा मन तो ध्यान में बिलकुल नहीं लगता ।”
गुरुदेव बोले – “ मन को साधना इसलिए जरुरी है क्योंकि मन चंचल है । चंचल मन से किसी भी कार्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता । इसलिए मन की चंचलता पर काबू पाना जरुरी है ।”
शिष्य बोला – “ किन्तु गुरुदेव ! मन चंचल क्यों है ?” शिष्य का प्रश्न सहज था किन्तु उसका उत्तर उतना सरल नहीं था । वास्तव में इस एक ही प्रश्न में सम्पूर्ण योग का सार छुपा हुआ है ।
गुरुदेव बोले – “ एक बात बताओ ! जिस मनुष्य के पास रहने के का कोई ठिकाना न हो, वह क्या करेंगा ?”
शिष्य बोला – “ गुरुदेव ! दर – दर भटकता फिरेगा, जब तक की उसे रहने के कोई ठिकाना नहीं मिल जाता ।”
गुरुदेव बोले – “ बस यही कारण है कि मन चंचल है । मन चंचल इसीलिए है, क्योंकि उसके पास ठहरने के कोई स्थाई ठिकाना नहीं । कोई ऐसी जगह नहीं, जहाँ उसे असीम और अनंत आनंद की अनुभूति हो सके । जहाँ पहुँचकर उसे कहीं और पहुँचने की आवश्यकता न हो । ऐसा स्थान केवल एक ही है और वह है – परम आनंद ”