एक राजा को दयालु और दानवीर कहलाने का बड़ा शौक था । दूसरों के मुख से आत्म प्रशंसा सुनने की उसकी ललक दिन – प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी । वह प्रतिदिन यश और प्रशंसा बटोरने के लिए कोई न कोई अनोखा कार्य करता था ।
एक दिन राजा नगर की सैर को जा रहा था, तभी वहाँ से एक बहेलिया बंद पिंजरे में पक्षियों को लेकर जा रहा था । राजा ने उस बहेलिये को बुलाया और सभी पक्षियों का मूल्य पूछा । बहेलिये ने मूल्य बताया तो राजा ने सब पक्षियों को खरीद लिया और स्वतन्त्र कर दिया ।
जिसने भी यह दृश्य देखा उसने राजा की बड़ी सराहना की । इससे राजा बहुत खुश हुआ । अब वह बहेलिया प्रतिदिन उसी समय वहाँ से गुजरने लगा, जब राजा नगर की सैर करने जाता था । प्रशंसा का गुलाम राजा भी प्रतिदिन उसी बहेलिये से पक्षी खरीद कर उड़ा देता ।
राजा के दयालुता के इस प्रदर्शन ने उस राज्य में कई नये बहेलियों को जन्म दे दिया । आत्मप्रशंसा और यश कामना के आनंद में डूबा राजा अपनी मुर्खता को समझ नहीं पाया ।
इसी बीच एक मनीषी का उस राज्य में आगमन हुआ । जब उनके सामने राजा यह मुर्खता किया तो वह बहुत दुखी हुए । महात्मा ने राजा को समझाया – “ हे राजन ! आपको मालूम भी है, आपकी झूठी यश कामना इन निरीह पक्षियों को कितनी महँगी पड़ती है । बहेलियों पर आपके मनमाने धन लुटाने के कारण कई नये बहेलिये पैदा हो गये । ये लालची बहेलिये प्रातःकाल आपके सामने प्रस्तुत करने के चक्कर में पता नहीं, दिनभर कितने पक्षियों को परेशान करते होंगे । उनमें से कई निर्दोष पक्षी तो मर भी जाते होंगे । यदि आप इतने ही दयावान और धर्म परायण है तो दयालुता का प्रदर्शन बंद कीजिये और पक्षियों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दीजिये ।”
राजा को महात्मा की बात समझ आ गई । उसने अपनी भूल के लिए महात्मा के सामने पश्चाताप व्यक्त किया और यश कामना की आकांक्षा छोड़कर वास्तविक दया धर्म के पालन की रीति नीति अपनाई । दुसरे ही दिन राजा ने सभी बहेलियों को कारावास में डाल दिया और पुरे राज्य में पक्षियों के वध पर सख्त नियम ऐलान करवा दिया ।
शिक्षा – इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि हमें दयालुता का प्रदर्शन नहीं, पालन करना चाहिए । वास्तव में प्रदर्शन यश की कामना से किया जाता है जबकि पालन आत्म प्रेरणा से किया जाता है ।
इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है –
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान ।
तुलसी दया न छोड़िए, जब लगि घट में प्राण ।।
दया धर्म का मूल है, अतः सभी भूत प्राणियों पर दया करनी चाहिए । पाप का मूल अभिमान है, यश कामना अर्थात अहंकार की पुष्टि, यही पाप तो राजा कर रहा था । तुलसीदासजी कहते है कि दया को तब तक न छोड़ो, जब तक घट में प्राण है ।
वस्तुतः दया मनुष्य में एक ऐसा दैवी गुण है, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा जैसे पातक क्षण भर में शांत हो जाते है । दया से मनुष्य का ह्रदय पवित्र होता है और पवित्र ह्रदय में ही परमपिता परमात्मा का निवास होता है । दया से मनुष्य का आत्मविकास होता है । दयालु व्यक्ति हमेशा संतोषी होता है पर संतोषी सदा सुखी वाली उक्ति तो आपने सुनी ही होगी ।
दया से करुणा की उत्पत्ति होती है और जहाँ करुणा का झरना झरता है, वहाँ करुणानिधि विराजमान होते है । इसी करुणा से मनुष्य में एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य होता है, जो उसे दीन – दुखियों का मसीहा बना देती है । दया से ही स्नेह, प्रेम, आत्मीयता और ममता जैसे कोमल मनोभावों का जन्म होता है । यदि हर अपराधी और आतंकवादी के ह्रदय में दया का बीज बोया जा सके तो उसे एक अच्छा इन्सान बनने से कोई नहीं रोक सकता । जहाँ दया होती है, वहाँ अन्य सद्गुण स्वतः चले आते है । इसीलिए कहाँ गया है – “ दया धर्म का मूल है ।”
ईश्वर हर समय श्वास देकर हमपर दया कर रहा है । हम यदि जिन्दा है तो ईश्वर की रहमत (दया) से ही जिन्दा है । अतः हमें भी ईश्वर के इस महान गुण को धारण करना चाहिए और दयालु बनना चाहिए । दयालु बनने का मतलब है, जैसे भी बन पड़े, किसी जरूरतमंद की मदद करना ।
मेरी दृष्टि में किसी को पैसा देने से बेहतर है, उसे आप पैसा बनाने का तरीका बता दे या आपका अपना कोई व्यवसाय हो तो उसे पैसा बनाने का अवसर प्रदान करें । इस संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिन्हें आपकी दया की आवश्यकता है । जरूरत केवल आपमें सोयी हुई करुणा को जगाने की है ।
अभी गर्मी का समय है, पशु पक्षी पानी की तलाश में भटकते फिरते है । आप चाहे तो अपने घर के सामने और अपने छत पर कोई पात्र रखकर उन निरीह प्राणियों की सेवा कर सकते है ।
आपको मेरा यह प्रयास पसंद आया हो तो अपने मित्रों को जरुर शेयर करें ।
जय श्री कृष्णा