सातवें दिन मरने वाले राजा परीक्षित को शुकदेवजी श्रीमद्भागवत सुना रहे थे । छः दिन हो चुके थे और अगले ही दिन राजा परीक्षित को तक्षक नाग डसने वाला था । छः दिन तक श्रीमद्भागवत सुनने के बाद भी राजा का शोक और भय दूर नहीं हुआ । राजा का विचलित मन देख शुकदेवजी ने एक कथा सुनानी आरम्भ की ।
राजन ! प्राचीन समय की बात है, एक राजा एक बार आखेट के लिए जंगल में गया । शिकार के पीछे भागते – भागते वह राजा अपने साथियों से भटक गया । जंगल बहुत घना था और वर्षा भी होने लगी थी । ऐसी घडी में रास्ता ढूँढना उस राजा के लिए दूभर हो गया था । बहुत भटकने के बाद भी उसे रास्ता नहीं मिला । आख़िरकार सूर्य अस्त हो चूका था और चारों तरफ घना अँधेरा छा चूका था । रात्रि के इस गहन अंधकार में सिंह और चीते आदि जंगली जानवरों की आवाजों से राजा और भी अधिक भयभीत हो रहा था । अब तो वह किसी तरह रात्रि बिताने के लिए किसी सुरक्षित स्थान की तलाश कर रहा था ।
तभी घने अन्धकार में उसे रोशनी की एक किरण दिखाई दी । वह एक बहेलिये की झोपडी में दीपक जल रहा था । जब वह राजा उस झोपडी के निकट गया तो देखा कि झोपड़ी से बड़ी दुर्गन्ध आ रही थी । उसमें एक गन्दा बहेलिया रहता था, जो ज्यादा चल फिर नहीं सकता था इसलिए उसने झोपडी में ही एक तरफ मल – मूत्र का स्थान बना रखा था । उस झोपड़ी के चारों तरफ उसने मांस लटका रखा था ।
इतनी नरक तुल्य जगह देख राजा अचंभित रह गया लेकिन और कोई उपाय न देख राजा ने बहेलिये से एक रात्रि उस झोपडी में बिताने की विनती की ।
बहेलिया बोला – “ अक्सर लोग विश्राम के लिए यहाँ आ जाते है, लेकिन जाने में बड़ा ही झगड़ा करते है । सबको मेरी झोपड़ी परमप्रिय हो जाती है । इसलिए अब मैंने लोगों को ठहरने की अनुमति देना बंद कर दिया । मैं नहीं चाहता कि आप भी सुबह उठकर मेरी झोपड़ी पर कब्ज़ा जमाये । इसलिए कृपा करके कहीं और जाइये और मुझे चैन से जीने दीजिये ।”
और कोई उपाय न जान राजा दीन स्वर में बोला – “ देखो ! मैं वचन देता हूँ, सूरज की पहली किरण के साथ ही मैं आपकी झोपड़ी छोड़ दूंगा । मैं तो मज़बूरी में यहाँ आ फसा हूँ अन्यथा मेरा उद्देश्य और कार्य बहुत ही बड़ा और महान है । आपसे विनती है कि मुझे मात्र एक रात्रि के लिए आश्रय प्रदान करे।”
बहेलिया बोला – “ ठीक है, एक रात्रि मतलब एक रात्रि, मुझे और कोई झंझट नहीं चाहिए ! समझे ।”
आखिर राजा को आश्रय मिल ही गया । राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा । रातभर झोपड़ी की दुर्गन्ध राजा के मन – मस्तिष्क में ऐसे रस – बस गई कि सुबह उठते ही राजा को झोपडी परमप्रिय लगने लगी ।
सुबह बहेलिये ने उठते ही महाराज को बोला – “ महाराज ! उठिए और अपना रास्ता नापिए ।”
राजा बहेलिये से और अधिक रहने के लिए बोलने लगा । इस पर बहेलिया गुस्से से लाल हो गया और बोला – “ मैंने कहा था ना, स्वार्थी लोग मेरी झोपडी पर कब्ज़ा ज़माने आते है । महाराज ! कृपा करके आप चले जाइये ।”
दोनों में तू – तू मैं – मैं होने लगी ।
इतनी कथा सुनाकर शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से पूछा – “ अब राजन ! आप ही बताओ ? उस राजा का अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर उस झोपड़ी में रहने के लिए झगड़ा करना कहाँ तक उचित था ?”
परीक्षित बोला – “ प्रभु ! ये कौन मुर्ख राजा था । जो गन्दी झोपड़ी में अपने राज परिवार को भूलकर और अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर रहने के लिए जिद कर रहा था ? अचरज होता है ! ऐसा मुर्ख भी कोई राजा हुआ होगा ?”
इस पर शुकदेवजी मुस्कुराते हुए बोले – “ राजन ! वो मुर्ख राजा और कोई नहीं, आप है । जो अब भी मल- मूत्र और मांस की गठरी देह से मोह रखे हुए है । राजन ! आपका इस देह रूपी गठरी में रहने का काल कल समाप्त हो रहा है तो फिर शोक किसलिए करना ! क्या इसमें आपकी मुर्खता नहीं ?”
अब राजा परीक्षित को बोध हो चूका था । वह देह के सत्य से अवगत हो चुके थे । अब वह मृत्यु से निर्भय हो मुक्ति के लिए तैयार थे ।”
असल में हम सबकी मनस्थिति यही है । जन्म के समय एक बच्चे को याद होता है कि वह कहाँ आ पड़ा । इसलिए वह रोता है । लेकिन कालान्तर में उसकी वह याददाश्त धीरे – धीरे विस्मृत होने लगती है । और वह इस देह और इसके सम्बन्धियों को ही अपना सब कुछ समझने लगता है ।
जब अंत समय आता है तो यही मोह उसके दुःख का कारण बनता है ।
ये राजा परीक्षित और कोई नहीं । हममें से ही कर कोई है ।