एक पौराणिक कथानक है । एक बार महर्षि विश्वामित्र सौ वर्षों तक एक जगह तपस्या में खड़े रहे । इस दौरान उनके शिष्य गालव मुनि ने महर्षि विश्वामित्र की सेवा – सुश्रूषा की । इससे महर्षि विश्वामित्र ने संतुष्ट होकर गालव मुनि से कहा – “ वत्स गालव ! अब मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि तुम जहाँ चाहो, जा सकते हो ।”
गुरुदेव के इस प्रकार आदेश देने पर गालव ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए मधुर वाणी में महातेजस्वी विश्वामित्र से पूछा – “ भगवन ! मैं आपको गुरु दक्षिणा के रूप में क्या दूँ ?”
गालव की सेवा – सुश्रुषा से भगवान विश्वामित्र उनसे बहुत प्रसन्न थे अतः उनके उपकार को समझते हुए विश्वामित्र ने उनसे बार बार कहा – “ जाओ – जाओ ! मुझे तुमसे कोई दक्षिणा नहीं चाहिए ।”
लेकिन फिर भी गालव मुनि बोले – “ भगवन ! शास्त्र कहता है, दक्षिणायुक्त कर्म ही सफल होता है, दक्षिणा देने वाला पुरुष ही सिद्धि को प्राप्त होता है । अतः कृपा करके बताइए कि मैं गुरुदक्षिणा में आपको क्या दूँ ?” इतने पर भी विश्वामित्र ने मना किया ।
लेकिन तपस्वी गालव बहुत अधिक आग्रह करने लगे । इस दुराग्रह का परिणाम यह हुआ कि महर्षि विश्वामित्र को क्षणिक क्रोध आ गया । अतः उन्होंने गालव मुनि से कहा – “ हे गालव ! यदि तुम मुझे कुछ देना ही चाहते हो तो मुझे चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण वाले ऐसे आठ सौ घोड़े ला दो, जिनके एक ओर का कान श्यामवर्ण हो ।”
विश्वामित्र की दक्षिणा सुनकर गालव मुनि का चेहरा उतर गया लेकिन फिर भी यथायोग्य समय लेकर वह श्यामवर्ण कर्ण वाले श्वेत घोड़ो की तलाश में निकल गये ।
घोड़ो की चिंता में गालव मुनि का सुख चैन सब जाता रहा और वह सुखकर काँटा हो गये । घोड़ो के लिए धन की चिंता में डूबे गालव मुनि अपने जीवन को निरर्थक जानकर नष्ट करने की सोचने लगे, तभी उन्हें परमप्रभु भगवान विष्णु का ध्यान आया । सच्चे ह्रदय से गालवमुनि ने अपनी समस्या भगवान विष्णु से कहीं तो प्रभु ने गालव की मदद के लिए अपने वाहन गरुड़ को भेजा ।
गरुड़ ने चारों दिशाओं का वर्णन करके गालव से पूछा – “ हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं तुम्हें समस्त दिशाओं का दर्शन कराने के लिए उत्सुक हूँ, अतः तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ और बताओं कि हम पहले किस दिशा को चले ?”
गरुड़ की पीठ पर बैठकर गालव ने कहा – “ हे गरुड़ ! तुम मुझे पूर्व दिशा की ओर ले चलो, जहाँ धर्म के नेत्रस्वरूप सूर्य और चन्द्रमा प्रकाशित होते है तथा जहाँ तुमने देवताओं का सानिध्य बताया है ।”
गरुड़ ने उड़ान भरी और गालव मुनि भय से व्याकुल हो उठे और बोले – “ हे गरुड़ ! अपनी गति को थोड़ा धीरे करो, कहीं ऐसा न हो तो तुमसें ब्रह्महत्या हो जाये । मुझे न तो तुम्हारा शरीर दिखाई दे रहा है न ही अपना, सब ओर अंधकार ही अंधकार है” इस तरह बातचीत करते – करते गालव मुनि ने विश्वामित्र द्वारा मांगी गई दुर्लभ दक्षिणा और उसके लिए अपनी चिंता के विषय में गरुड़ को कहा ।इतने में वह समुद्र तट के निकट ऋषभ नामक पर्वत पर पहुंचे गये ।
ऋषभ पर्वत पर उन्हें एक तपस्विनी मिली, जिसका नाम शाण्डिली था । शाण्डिली ने उन दोनों को कुछ खाने को दिया और उसके बाद वो सो गये । जब जागे तो गरुड़ के पंख गायब थे । गरुड़ को ऐसे देखकर गालवमुनि बोले – “ सखे ! तुमने जरुर कुछ गलत सोचा होगा ।” तो गरुड़ कहने लगे – “ मैंने तो बस इतना ही विचार किया था कि इस तपस्विनी को मुझे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लोक में छोड़ देना चाहिए । फिर भी है देवी ! यदि मैंने अपने चंचल मन से आपका कुछ अप्रिय सोचा तो मुझे क्षमा करें ”
यह सुनकर तपस्विनी संतुष्ट हो गई और बोली – “ वत्स ! तुमने मेरी निंदा की है, मैं निंदा सहन नहीं करती, जो पापी मेरी निंदा करेंगा, पुन्य लोको से तत्काल भ्रष्ट हो जायेगा । अतः आजसे तुम्हे मेरी ही नहीं बल्कि किसी भी स्त्री की निंदा नहीं करनी चाहिए ।” यह कहकर तपस्विनी ने गरुड़ को उसके शक्तिशाली पंख वापस लौटा दिए । तत्पश्चात तपस्विनी की आज्ञा लेकर वह दोनों अपने अभीष्ट स्थान की ओर चल दिए । विश्वामित्र को दी गई प्रतिज्ञा को लेकर गालव ऋषि बड़े चिंतित थे ।
तभी पक्षिराज गरुड़ ने कहा – “ गालव ! श्वेतवर्ण और श्यामकर्ण घोड़े हमें तभी मिल सकते है, जब हमारे पास धन हो । अतः मेरी राय में हमें किसी राजा के पास जाकर धन की याचना करनी चाहिए । चन्द्रवंश में उत्पन्न एक राजा मेरे मित्र है, जो महाराज नहुष के पुत्र है । वह मांगने पर तुम्हें निश्चय ही धन दे देंगे ।” इस तरह की बात सुनकर गालव ने गरुड़ को राजा ययाति के पास चलने को कहा । दोनों राजा ययाति के दरबार में पहुंचे ।
पक्षिराज गरुड़ बोले – “ हे नहुषनंदन ! ये तपस्वी गालव मेरे मित्र है । यह दस हजार वर्षों तक महर्षि विश्वामित्र के शिष्य रहे है ।” इस तरह गरुड़ ने विश्वामित्र को दी गई प्रतिज्ञा और दक्षिणा की पूरी बात राजा ययाति को बताई और बोले – “ हे राजन ! ऋषि गालव आपके दान के सुपात्र है और इनके हाथ में दिए गये दान से आपकी शोभा होगी ।”
राजा ययाति का वैभव पहले ही सहस्त्रों यज्ञ, अनुष्ठान और दानादि करने के कारण क्षीण हो चूका था । अतः वह बोला – “ हे गरुड़ ! आप सुर्यवंश के दुसरे राजाओं को छोड़कर मेरे पास पधारे, अतः मेरा जन्म सफल हो गया । किन्तु अब मैं उतना धनवान नहीं रहा जितना आप समझते है । इन दिनों मेरा वैभव क्षीण हो चूका है । अतः मैं आपकी इच्छा पूर्ण करने में असमर्थ हूँ । लेकिन फिर भी द्वार पर आये याचक को खाली हाथ लौटाकर अपने कुल को कलंकित नहीं करूंगा । जो आपका सम्पूर्ण कार्य संपादन करेगी ।” यह कहकर राजा ययाति ने अपनी सर्वांग सुन्दर पुत्री माधवी को बुलाया ।
राजा ययाति बोला – “ यह मेरी पुत्री चार राजकुलों की स्थापना करने वाली है । इसके रूप और सौन्दर्य से आकृष्ट होकर देवता, मनुष्य और असुर आदि सब लोग इसे पाने की अभिलाषा रखते है । अतः आप इसे ले जाइये । इसके शुल्क के रूप में राजा आपको अपना राज्य भी दे देंगे, फिर आठ सौ श्याम कर्ण और श्वेत वर्ण घोड़ो की तो बात ही क्या है ?”
यह सुनकर गालवमुनि ने कहा – “ ठीक है, राजन ! मेरा मनोरथ पूर्ण होने के पश्चात् फिर मिलूँगा ।” इतना कहकर गालव मुनि कन्या माधवी को अपने साथ लेकर चल दिए । इसके पश्चात् गरुड़ ने कहा – गालव ! तुम्हें घोड़ो की प्राप्ति का साधन मिल गया है अतः अब मैं अपने घर चलता हूँ ।” यह कहकर गरुड़ अपने घर को चल दिए ।
पक्षिराज गरुड़ के चले जाने के बाद गालवमुनि सोचने लगे कि ऐसा कौनसा राजा होगा जो इस देवकन्या का शुल्क देने में समर्थ हो ? यह मन ही मन सोचते हुए गालव मुनि अयोध्या के राजा हर्यश्व के पास पहुँचे । राजा हर्यश्व चतुरंगिणी सेना और सभी प्रकार के धन – धान्य से संपन्न थे ।
राजा हर्यश्व के पास जाकर गालवमुनि बोले – “ राजन ! यह देवकन्या अपनी संतानों द्वारा वंश वृद्धि करनेवाली है । तुम चाहो तो शुल्क देकर निश्चित अवधि तक इसे अपनी पत्नी बनाकर रख सकते हो ।”
तब राजा हर्यश्व ने कहा – “ हे द्विजश्रेष्ठ ! आपकी यह कन्या कई शुभ लक्षणों से युक्त और कई चक्रवर्ती पुत्रों को जन्म देने में समर्थ है । अतः उसके लिए आप समुचित शुल्क बताइए ?”
गालव मुनि बोले – “राजन ! इसके शुल्क के रूप में मुझे आठ सौ चंद्रमा के समान श्वेत वर्ण और एक ओर से श्याम कर्ण घोड़े चाहिए । यह शुल्क चूका देने पर मेरी यह शुभ लक्षणाकन्या आपके तेजस्वी पुत्रों की जननी होगी ।”
यह सुनकर काम से मोहित हुआ राजा हर्यश्व अत्यंत दिन स्वर में बोला – “ हे ब्रह्मन ! जैसे घोड़े आपको चाहिए, वैसे मेरे पास केवल दो सौ घोड़े ही है । लेकिन दूसरी जाति के कई घोड़े मैं आपको दे सकता हूँ । इसके बदले में मैं इस कन्या से केवल एक संतान उत्पन्न करूंगा । अतः आप मेरे इस शुभ मनोरथ को पूर्ण करें ।”
यह सुनकर गालव मुनि थोड़े चिंतित हो गये तब वह कन्या बोली – “ हे मुने ! मुझे एक वेदवादी ब्राह्मण का ऐसा वरदान है कि “ तुम प्रत्येक प्रसव के अंत में फिर कन्या हो जाओगी ।” अतः आप दो सौ यथेष्ठ घोड़ो के बदले मुझे राजा को सौंप सकते है । इस तरह चार राजाओं से दो सौ – दो सौ घोड़े लेकर आप अपनी दक्षिणा जुटा सकते है । इससे मेरे रूप सौन्दर्य पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, अतः आप निश्चिन्त रहे ।”
कन्या के ऐसा कहने पर गालव मुनि ने राजा हर्यश्व से कहा – “ हे राजन ! आप यथेष्ठ शुल्क का एक चौथाई भाग देकर इस कन्या को ग्रहण करे और इससे केवल एक ही संतान उत्पन्न करें ।” इस तरह उस कन्या ने राजा हर्यश्व के लिए एक पुत्र को जन्म दिया जो वसुमना नाम से विख्यात हुआ ।
नियत समय पर गालव मुनि वहाँ पहुँच गये और घोड़े अमानत के रूप में छोड़कर कन्या को लेकर राजा दिवोदास के पास पहुँचे । काशी नरेश राजा दिवोदास के समक्ष भी गालव मुनि ने शुल्क देकर देवकन्या से संतानोत्पत्ति का प्रस्ताव रखा । उनके पास भी यथेष्ठ घोड़े केवल दो सौ ही थे । अतः उन्हीं के बदले उन्होंने नियत अवधि तक उस माधवी को उस राजा के पास छोड़ दिया । राजा दिवोदास से माधवी ने प्रतर्दन नाम पुत्र एक संतान उत्पन्न की । इसके पश्चात् काशी नरेश को त्यागकर गालव मुनि के साथ हो गई ।
अपने कार्य की सिद्धि का मंतव्य लेकर गालव मुनि और माधवी दोनों भोज नगरी के राजा उशीनर के पास पहुंचे और उनके सामने भी अपना मनोरथ रखा । लेकिन राजा उशीनर के पास भी केवल दो सौ घोड़े ही मिले । दो सौ घोड़ो के बदले गालव मुनि ने माधवी को राजा उशीनर के पास छोड़ दिया । माधवी ने राजा उशीनर से सूर्य के समान तेजस्वी बालक को जन्म दिया जो शिवि के नाम से विख्यात हुआ । नियत अवधि के बाद गालव मुनि माधवी को लेने पहुँच गये । तभी राजा के दरबार में उन्हें पक्षिराज गरुड़ मिल गये ।
गरुड़ हँसते हुए बोले – “ ब्रह्मन ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आपका मनोरथ पूरा हो गया ।”
तब गालव मुनि बोले – “ पक्षिराज ! अभी तो दक्षिणा का एक चोथाई भाग बाकि है, जिसे शीघ्र ही पूरा करना होगा ।”
तब गरुड़ बोले – “ अब इसके लिए तुम्हारा प्रयत्न व्यर्थ होगा, क्योंकि अब ऐसे और अधिक घोड़े किसी के पास नहीं है ।” तब गरुड़ के कहने से गालव मुनि छः सौ घोड़े लेकर विश्वामित्र के पास पहुंचे ।
गालव मुनि बोले – “ गुरुदेव ! आपकी इच्छानुसार ये छः सौ घोड़े आपकी सेवा में प्रस्तुत है और शेष दो सौ के शुल्क के बदले आप इस कन्या को ग्रहण करें और इससे संतानोत्पत्ति करें ।”
तब विश्वामित्र ने कन्या पर दृष्टिपात करते हुए कहा – “ गालव ! तुम इसे पहले ही ले आते तो मुझे इससे चार वंश प्रवर्तक पुत्र प्राप्त हो जाते । अब मैं इस कन्या का ग्रहण करता हूँ और घोड़े मेरे आश्रम में छोड़ दो ।”
इस तरह विश्वामित्र ने माधवी के गर्भ से अष्टक नाम के एक पुत्र को जन्म दिया । तदन्तर अष्टक को उत्तराधिकार में सभी और घोड़े और राजधानी देकर विश्वामित्र वन में तप करने निकल गये ।
इधर गालव मुनि भी विश्वामित्र के ऋण से उऋण होकर माधवी को अपने पिता राजा ययाति को लौटाकर वन में चले गये ।
शिक्षा – इस कहानी की मुख्य तो यह है कि जब कोई विप्रवर अनुग्रह करे तो हमें हठ या दुराग्रह नहीं करना चाहिए । वरना विश्वामित्र जैसा कोई मिल गया तो गालवमुनि जैसी हालत हो सकती है । बाकि इसमें दक्षिणा को पूरी करने के लिए माधवी का जिस तरह उपयोग गया है, वह निश्चय ही सोच का विषय है या फिर इसमें कोई आध्यात्मिक रहस्य छुपा हो सकता है । इस बारे में आप अपने विचार रखे ।
नारी की दयनीय दशा उस काल में भी थी और इस काल में भी। डा अम्बेडकर जैसा मसीहा था जो नारी को पढ़ने लिखने और नौकरी तथा राजनीति का अधिकार मिल सका। बाकी यह कहानी कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं जिसमें नारी को भोग विलास की वस्तु की तरह प्रयोग किया गया! इसलिए संविधान पढ़े, गपोल कल्पनाएँ नही!