कुशीनगर का राजा लोगों के पूण्य खरीदने के लिए प्रसिद्ध था । धर्मराज ने उसकी धर्मपरायणता और सत्य निष्ठा से प्रभावित होकर उसे एक पूण्य का तराजू दिया था, जिसके एक पलड़े को छूकर जो कोई भी अपने पूण्य कर्मों का स्मरण करता, दुसरे पलड़े में दैवीशक्ति से उस पूण्य कर्म के बराबर स्वर्ण मुद्राएँ प्रकट हो जाती थी ।
एक दिन पड़ोसी राज्य विजयनगर पर शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया । दिन भर विजयनगर की सेना लड़ती रही, लेकिन पर्याप्त तैयारी नहीं होने से शत्रु राज्य की सीमा में घुस आये । शत्रुओं ने राज्य में मारकाट मचाना शुरू कर दिया । स्थिति यह बनी कि राजा को रातोंरात रानी को लेकर जंगल में भागना पड़ा । रातभर भागते – भागते वह कुशीनगर जा पहुँचे। सुबह होते ही रानी को भूख लगने लगी, लेकिन जल्दबाजी में भागने के कारण वह कुछ भी खाने की सामग्री साथ लेकर ना आ सके । अतः उन्होंने कोई काम ढूंढ़कर उससे खाने का इंतजाम करने की सोची ।
राजा जंगल गया और लकड़ियाँ काटकर शहर बेंच आया । उससे वह कुछ चावल खरीद लाया । इधर रानी भी दिन भर लोगों के घर आटा पीसकर जो थोड़ा आटा जुटा पाई थी, उसे लेकर महाराज के पास पहुँची । बड़ी मेहनत – मशक्कत के बाद दोनों भोजन बनाकर खाने बैठे ही थे कि अचानक एक भिखारी आ भटका । भिखारी बड़ी ही दयनीय दशा में मालूम होता था । वह कह रहा था – “माई ! दो दिन से भूखा हूँ, कुछ खाने को दे दो ।” भिखारी की दशा देखकर राजा – रानी को दया आ गई । उन्होंने अपने हिस्से की रोटियाँ भिखारी को दे दी और भूखे पेट ही काम पर निकल गये ।
जाते जाते रास्ते में उन्हें दो व्यक्ति आते दिखाई दिए, जो अभी – अभी कुशीनगर के राजा के पास से आ रहे थे । इस राजा ने पूछा – “क्यों भाई ! यहाँ कहीं कोई काम मिलेगा ?”
दोनों राहगीर आपस में मुस्कुराये और बोले – “ देखो मुसाफिर ! हम खुद भी अपना पूण्य बेचकर आ रहे है । अगर तुम्हारे पास भी कोई पूण्य हो तो बेंच दो, उसके बदले पूण्य का तराजू तुम्हे स्वर्ण मुद्राएँ दे देगा ।”
पूण्य बेंचने की बात राजा को अजीब लगी लेकिन रानी कहने लगी –“ महाराज ! आपने कितना सारा पूण्य किया है । राज्य में नदी – नहरे बनवाई । सैकड़ो ब्राह्मणों को दान दिया । अगर आप अपना सारा पूण्य बेंच दो तो हम एक और नया राज्य बना सकते है ।” रानी की बात राजा को जंच गई । दोनों राजा – रानी कुशीनगर के राजा के पास पहुंचे और अपनी पूरी व्यथा कह सुनाई । उनके साथ हुए धोखे और अन्याय के बारे में सुनकर कुशीनगर का राजा बड़ा दुखी हुआ । कुशीनगर के राजा ने उनकी मदद करने का आश्वासन दिया किन्तु विजयनगर राजा बड़ा ही स्वाभिमानी था । उसने किसी भी प्रकार की कोई मदद लेने से स्पष्ट मना कर दिया । तो कुशीनगर के राजा ने कहा – “ ठीक है यदि आप कोई सहायता नहीं लेना चाहते है तो ना सही किन्तु आप अपने पूण्य बेंचकर उसका मूल्य प्राप्त कर सकते है ।”
कुशीनगर के राजा ने पूण्य का तराजू राजा के सामने रखते हुए कहा – “महाराज ! इस तराजू के एक पलड़े को छूकर आप अपने उन पुण्यों का स्मरण करे, जिन्हें आप बेंचना चाहते है । आपके उस पूण्य के अनुरूप राशी इस दुसरे पलड़े में आ जाएगी ।”
राजा ने तराजू के पलड़े पर हाथ रखा और राज्य में नदी – नहरों और गुरुकुलों के बनवाने के पुण्यों का स्मरण किया । लेकिन पलड़ा बिलकुल भी भारी नहीं हुआ ना ही दुसरे पलड़े में कोई राशी आई । यह देखकर राजा – रानी दोनों उस पूण्य के तराजू को झूठा बताने लगे । तब कुशीनगर का राजा बोला – “ महाराज ! पूण्य के तराजू ने आजतक किसी के साथ कोई अन्याय नहीं किया । राज्य में नदी नहरे बनवाना एक राजा का कर्तव्य है, इसलिए उसे आपके पूण्य में नहीं गिना जा सकता । आप अपने किसी दुसरे पूण्य को रखकर देखिये ।”
राजा ने इस बार प्रतिदिन हजारो ब्राह्मणों के भोजन और दान – दक्षिणा के पूण्य का स्मरण किया लेकिन इस बार भी पूण्य का तराजू ज्यों – का त्यों बना हुआ था । यह देखकर रानी बोल पड़ी – “ ये तो सरासर अन्याय है ।”
कुशीनगर राजा दोनों को धीरज बंधाते हुए बोला – “ पूण्य के तराजू ने आज तक किसी के साथ अन्याय नहीं किया । प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को भोजन राजा अपने अहम् को पुष्ट करने के लिए कराते थे । अहंकार पूर्वक किया हुआ कोई भी कर्म पूण्य की गिनती में नहीं आता । आप अपना कोई ऐसा पूण्य रखिये जो आपने अपनी मेहनत से किया हो ।”
तभी राजा को याद आया, अभी कल ही स्वयं भूखा रहकर एक भिखारी को भोजन कराया था । उसने उस पूण्य को तराजू में रख दिया । इस बार तराजू अचानक से भारी हो गया । यह देखकर राजा और रानी दोनों खुश हो गये लेकिन यह क्या ? तराजू के दुसरे पलड़े में कोई राशी नहीं आई थी ! तभी विजयनगर का मंत्री राजा को ढूंढता हुआ वहाँ आ पहुँचा । उसने बताया कि “उनकी सेना ने शत्रुओं को मारकर भगा दिया और राज्य अब पूर्णत सुरक्षित है और सभी आपकी प्रतीक्षा कर रहे है ।”
यही राजा के उस पूण्य का फल था जो पूण्य के तराजू ने उसे भिखारी को भोजन कराने के बदले दिया था ।
शिक्षा – इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि वास्तव में निष्काम भाव से स्वयं कष्ट सहकर दुसरे के भले के लिए किया गया कर्म ही पूण्य होता है । कर्तव्य कर्म पूण्य की श्रेणी में नहीं आता लेकिन कर्तव्य कर्म का पालन नहीं करना पाप है । अहंकार पूर्वक किया गया दान या पूण्य कर्म भी कर्ता को इच्छित फल नहीं देता । अतः विद्वान मनुष्य को चाहिए कि विवेक पूर्वक पूण्य कर्मों का संचय करें ।