राजा भोज उनके समय के बड़े ही साहसी, प्रतापी और विद्वान राजा थे । कहा जाता है कि राजा भोज ने अपने समय में सभी ग्रामों और नगरो में मंदिरों का निर्माण करवाया था । राजा भोज प्रजा की सुख सुविधाओं का बड़ा ही खयाल रखते थे । इतिहास से यह भी विदित होता है कि राजा भोज धर्म, कला, भवन निर्माण, खगोल विद्या, कोश रचना, काव्य, ओषध शास्त्र आदि के विद्वान थे । उनकी इसी विद्वता के रहते एक कहावत प्रचलित हुई – “कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तैली ”
राजा भोज ने अपने राज्य में बड़े बड़े बाग – बगीचे, मंदिर, तालाब आदि बहुत से सार्वजानिक स्थानों का निर्माण करवाया था । इस बात का राजा को बड़ा ही अभिमान था ।
एक दिन राजा भोज गहरी नींद में सो रहे थे तभी उन्हें एक स्वप्न आया । स्वप्न में उन्होंने देखा कि एक तेजस्वी व्यक्ति उनके सामने आ खड़ा हुआ है । राजा भोज ने उससे पूछा – “ तुम कौन हो ?”
वह तेजस्वी व्यक्ति बोला – “ राजन ! मैं सत्य हूँ, मैं तुझे तेरे कर्मों की सच्चाई बताने के लिए प्रकट हुआ हूँ । मेरे पीछे – पीछे चला आ !”
राजा तो जानता था कि उसने बहुत सारे पूण्य और परमार्थ के कार्य करवाए है अतः वह निश्चिन्त होकर प्रसन्नता पूर्वक उस तेजस्वी पुरुष के पीछे – पीछे चल दिया ।
तेजस्वी पुरुष राजा भोज को सबसे पहले बाग – बगीचों में ले गया । अपने बाग – बगीचों की सुन्दरता को देखकर राजा भोज बड़ा खुश हुआ जा रहा था । तभी तेजस्वी पुरुष ने एक पेड़ को छुआ तो तुरंत सुख गया और उसके सारे पत्ते झड गये । देखते ही देखते सत्य ने सारे पेड़ – पौधे छुए और सबका यही हाल हुआ । यह देखकर राजा भोज बड़ा दुखी हुआ ।
उसने आश्चर्यचकित होकर सत्य से इसका कारण पूछा लेकिन उसने कोई जवाब न देकर पीछे आने का संकेत देकर आगे चल दिया । वह राजा को उन भव्य मंदिरों में ले गया जो दिखने में अप्रतिम सुन्दर पतित हो रहे थे । जैसे ही सत्य ने उन्हें छुआ, वह भी ढहने लगे और देखते ही देखते खंडहर हो गये ।
इस तरह सत्य ने राजा को उसके द्वारा किये गये हर अच्छे कर्म की वास्तविकता का बोध कराया और सबकी दुर्दशा होती देख राजा बड़ा दुखी हुआ । जिनके बलबूते पर राजा अपनी महानता की ढींगे हांकता था उनकी वास्तविकता को देख राजा बड़ा ही हताश और निराश हो गया । वह सिर पकड़कर वही बैठ गया ।
तब सत्य बोला – “राजन ! दुखी न हो, सत्य को समझो । जिन वस्तुओं को तुम पूण्य का साधन मान रहे थे, असल में वह कुछ भी नहीं है । पूण्य वस्तुओं से नहीं, प्रत्युत व्यक्ति की भावना से आँका जाता है । तुमने अभिमान पूर्वक अपने शान – शौकत और यश कीर्ति को बढ़ाने के लिए बड़े – बड़े बाग़ – बगीचे और मंदिरों का निर्माण करवाया । किन्तु उनका पूण्य कुछ भी नहीं है । जो कर्म सच्चे ह्रदय से, निस्वार्थ भाव से, कर्तव्य परायण होकर किये जाते है, असल में वही पूण्य है । किसी जरूरत मंद व्यक्ति की सही समय पर सेवा करना, करोड़ो रूपये के दान से अधिक श्रेयस्कर है ।
किसी भी प्रकार की कामना से प्रेरित होकर, अपने अहम् की तुष्टि के लिए, किसी लोभ से प्रेरित होकर किया गया कोई भी कर्म पूण्य नहीं हो सकता । अतः वास्तविकता को समझो और पूण्य का अर्जन करो । तुम धार्मिक प्रवृति के हो अतः मैं तुम्हे वास्तविकता से अवगत कराने आया हूँ।”
इतना कहकर वह तेजस्वी पुरुष अन्तर्धान हो गया । उसके जाते ही राजा की नींद खुल गई। राजा गंभीरतापूर्वक स्वप्न पर विचार करने लगा । अब उसे समझ आ चूका था कि उसका पूण्य मिट्टी के बराबर भी नहीं है।
शिक्षा – मनुष्य जीवन का सारा खेल पाप और पूण्य का खेल है । जिन कर्मों के करने से आत्मा निर्भय, प्रसन्न और आनंदित होता है, उन्हें पूण्य कहते है । इसके विपरीत जिन कर्मों के करने से आत्मा में भय, लज्जा, ग्लानी, दुःख, अप्रसन्नता आदि का प्रकटीकरण हो, उन्हें पाप कहते है । यह पाप और पूण्य की सबसे सरल और स्पष्ट परिभाषा है, जिसके आधार पर हम अपने कर्मों की समालोचना कर सकते है ।