प्रकृति का उपहार – प्रतिध्वनि | वनपरी की कहानी

एक गाँव में मनोज नाम का एक लड़का रहता था । घर में माँ – पिताजी, दादा – दादी, भाई – बहिन सब कोई थे, लेकिन जैसे – जैसे उम्र बढ़ती गई, मनोज की अपने परिवार से दूरियाँ भी बढ़ती जा रही थी । वह अपना ज्यादातर समय अकेला या दोस्तों के साथ बिताता था ताकि वह घर वालों की रोक – टोक और तानो का शिकार न हो ।
 
अक्सर 12 – 13 साल के बाद बच्चे अजीब व्यवहार करना शुरू कर देते है । जैसे किसी भी बात को लेकर ज़िद करना, बात – बात में गुस्सा हो जाना, गलती करके छुपाना, घर वालों की कोई बात नहीं सुनना, सही गलत की समझ नहीं होना और सबसे खतरनाक कुसंगति में पड़ना । यह क्रम तब तक चलता है जब – तक कि वह समझदार न हो जाये । सामान्यतया यह समय 7 – 10 साल का होता है । इस समय में यदि बच्चा गलती भी करे तो उसके साथ गुस्से, मारपीट या ज्यादती से पेश आने के बजाय उन्हें प्यार से समझाने की जरूरत होती है । क्योंकि इस समय तक उन्हें सही – गलत की कोई खास समझ नहीं होती है । जरूरत है, उनकी हर हरकत पर पैनी दृष्टि से नजर रखी जाये और कुछ भी संदिग्ध पाए जाने पर निष्पक्ष रूप से बचाव का कोई उपाय किया जाये । क्योंकि इसी उम्र में बच्चा सबसे ज्यादा झूठ बोलता है । यदि आपको लगता है कि उसके दोस्त सही नहीं है, तो उसे उनसे दूर रखना ही बेहतर होगा । क्योंकि यदि गहराई से सोचा जाये तो दुनिया में जितने भी अपराधी है । उनमें से हर कोई कुसंगति का शिकार है । क्योंकि माँ के गर्भ से कोई भी बच्चा अपराधी बनकर जन्म नहीं लेता ।
 
मनोज की मनःस्थिति भी कुछ ऐसी ही थी । वह स्कूल के बाद ज्यादातर समय अपनी माँ के साथ बिताया करता था । क्योंकि माँ उसे नित नयी कहानियाँ सुनाती थी ।
 
आज भी बातों ही बातो में उसकी अपने ही एक सहपाठी के साथ लड़ाई हो गई । बात यहाँ तक बढ़ गई कि मनोज में अपने सहपाठी का सिर फोड़ दिया और स्कूल से भाग गया । उसे पता था कि घर गया तो उसकी पिटाई तय है, साथ ही उल – जलूल सुनने को मिलेगा वो अलग । अतः उसने जंगल की ओर कदम बढ़ाने शुरू कर दिए ।
 
आरम्भ में तो रंग – बिरंगे पेड़ – पौधो और पशु – पक्षियों के मनमोहक दृश्य उसे बड़े ही लुभावने लगे । वह आनंद मग्न होता हुआ चला जा रहा था । लेकिन कब तक ?
 
सूर्य अस्ताचल को चला था । हवाएं धीमी हो चुकी थी । सभी पक्षी अपने – अपने घोसलों को लौट रहे थे । अब उसे एकाकीपन का अभिशाप अखरने लगा था । लेकिन वह पीछे कदम भी तो नहीं रख सकता था । आखिर कुछ ही समय में चारों ओर अँधेरे का साम्राज्य दिखाई दे रहा था । लेकिन चंदामामा अब भी अपनी चाँदनी के सहारे अन्धकार से अनवरत लड़ रहे थे ।
 
तभी हवा का एक तेज झोंका आया । होले से पत्ते उड़े, पेड़ झूमे, पक्षी चहके और मनोज को माँ द्वारा सुनाई गई, वनपरी की कहानी याद आ गई । अब उसके मन ने भी कल्पनाओं की झड़ी लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । जैसे ही वह चलता, उसे लगता कि कोई उसका पीछा कर रहा है । वह पीछे मुड़कर देखता तो अँधेरे में पेड़ो के हिलने से अजीबोगरीब आकृतियाँ बनती दिखाई देती ।
 
वह बुरी तरह से डर चूका था । अतः उसने वापस घर लौटने का निश्चय किया । लेकिन जैसे ही वह चलता अपने ही वहम से सहम जाता । पीछे मुड़कर देखता तो फिर वही अजीबोगरीब आकृतियाँ । वह जोर से चिल्लाया “ कौन है ?” सामने आओ ? । पर्वतो से टकराती हुई प्रतिध्वनी हुई – “ कौन है ?” सामने आओ ?” सुनकर वह भौचक्का रह गया ।
 
लेकिन पत्तो के हिलने से आकृति कभी यहाँ तो कभी वहाँ बनती । अतः उसे लगा कि वनपरी यहाँ से वहाँ भागकर छुप रही है । वह फिर जोर से चिल्लाया – “ भागो मत, सामने आओ ” । फिर से यही प्रतिध्वनी हुई – “ भागो मत, सामने आओ ? वह बुरी तरह से डर गया । उसने हिम्मत करके आंखे बंद करके भागना शुरू दिया । जब तक गाँव नहीं पहुंचा, उसने पलटकर नहीं देखा ।
 
इधर घर वाले परेशान होकर गाँव में उसे ढूंढ रहे थे । वह बहुत डरा हुआ था और बुरी तरह कांप रहा था । माँ ने हाथ – मुंह धुलाये और खाना खिलाया और पूछा उससे – “ क्या हुआ ? इतना घबराया हुआ क्यों है ?” उसके मुंह से बस एक ही शब्द निकलता – “ वनपरी,,,, वनपरी,,,,”
 
माँ बोली – “अरे बेटा ! वनपरी तो वन की देवी है । उससे डर मत वो किसी का कोई नुकसान नहीं करती । हम उसे जितना प्यार से पुकारते है, उतना ही प्यार से वो हमें पुकारती है । तू कल सुबह जाकर फिर से पुकारना और बोलना – हम आपसे बहुत प्रेम करते है, आपका वन बहुत सुन्दर है ।”
 
मनोज माँ की बात समझ गया और अगली सुबह उसने वैसा ही किया । प्रत्युत प्रतिध्वनी स्वरूप उसे भी वैसा ही सन्देश मिला । वह बहुत खुश हुआ । उसने सारी बात माँ को कह सुनाई ।
 
माँ ने कहा – “ यही प्रकृति का उपहार है, बेटा ! जिसे प्रतिध्वनि कहते है । जैसा हम प्रकृति को देते है, वो भी हमें वैसा ही देती है । यही शाश्वत नियम है ।”
 
शिक्षा – हममें से हर कोई इस अबोध बालक मनोज की तरह है, जो प्रकृति के इस छोटे से नियम को नहीं समझ पाता । कितने ही महापुरुष और महात्मा हमें यह सत्य बताते है लेकिन हम इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते है । जैसा हम दूसरों के लिए करते है, दुसरे भी हमारे लिए वैसा ही करते है । जैसा हम बोयेंगे, वैसा ही काटेंगे । यह जानने, समझने के बाद भी यदि हम गलत सोचते है, गलत करते है तो हमसे बड़ा मुर्ख और कौन होगा ? सोचने की बात है !

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