आचार्य महीधर प्रतिदिन एक गाँव से दुसरे गाँव, एक नगर से दुसरे नगर भ्रमण करके लोगों को आत्मज्ञान, धर्म और वेदों का उपदेश दिया करते थे । एक दिन वह अपने शिष्यों की मंडली को लेकर एक जंगल से गुजर रहे थे । संध्या होने को आई थी और अमावस्या की रात होने से जल्दी ही अँधेरा होने की आशंका थी । अतः आचार्य महीधर ने सुरक्षित स्थान देख रात्रि विश्राम वही करने का निश्चय किया ।
जलपान करके सभी सोने के लिए गये । धीरे – धीरे करके सम्पूर्ण मण्डली गहरी निद्रा में सो गई । लेकिन आचार्य महीधर अब भी सुदूर अंतरिक्ष में तारों में दृष्टि गड़ाएं एकटक देख रहे थे । शायद वह रातभर जागकर अपनी मण्डली की रखवाली करने वाले थे ।
तभी अचानक उन्हें दूर कहीं कुछ लोगों का करुण रुदन सुनाई दिया । कुतूहलवश वह उठे और उस दिशा में चल दिए जहाँ से रोने की आवाज आ रही थी । चलते – चलते वह एक ऐसे कुएं के पास पहंचे जिसमें अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दे रहा था । लेकिन वो आवाजे उसी में से आ रही थी । जब आचार्य ने कुछ गौर से देखने की कोशिश की तो उन्होंने देखा कि पांच व्यक्ति ओंधे मुंह लटके बिलख – बिलखकर रो रहे है ।
आचार्य उन्हें इस अवस्था में देख अचंभित थे । उनकी मदद करने से पूर्व उन्होंने उन्हें पूछना उचित समझा और बोले – “ आप कौन है और आपकी यह दुर्गति कैसे हुई और आप यहाँ से निकलने का प्रयास क्यों नहीं करते ?”
आचार्य की आवाज सुनकर पांचो व्यक्ति चुप हो गये । कुछ देर के लिए कुएं में सन्नाटा छा गया । तब आचार्य बोले – “ यदि तुम लोग कहो तो मैं तुम्हारी कोई मदद करूँ ।”
तब उनमें से एक व्यक्ति बोला – “ आचार्य जी ! आप हमारी कोई मदद नहीं कर सकते, क्योंकि हम पांचो प्रेत है । हमें हमारे कर्मों का फल भोगने के लिए ओंधे मुंह इस कुएं में लटकाया गया है । विधि के विधान को तोड़ सकना न आपके लिए संभव है, न ही हमारे लिए ।”
आचार्य उन प्रेतों की यह बात सुनकर स्तब्ध रह गये । उत्सुकतावश वह पूछ बैठे – “ भाई ! मुझे भी बताओ, ऐसे कोनसे कर्म है, जिनके करने से तुम्हारी ऐसी दुर्गति हुई ?”
सभी प्रेतों ने एक – एक करके अपनी दुर्गति का कारण बताना शुरू किया । उनमें से पहला प्रेत बोला – “ मैं पूर्वजन्म में एक ब्राह्मण था । कर्मकाण्ड करके दक्षिणा बटोरता था और भोग – विलास में झोंक देता था । जिन शिक्षाओं का उपदेश मैं लोगों के लिए करता था । मैंने स्वयं उनका कभी पालन नहीं किया । ब्रह्म कर्मो की ऐसी उपेक्षा करने के कारण मेरी ऐसी दुर्गति हुई है ।”
दूसरा प्रेत बोला – “ मैं पूर्वजन्म में एक क्षत्रिय था । ईश्वर की दया से मुझे दीन – दुखियों की सेवा और सहायता करने का मौका मिला था । लेकिन मैंने अपनी ताकत के दम पर दूसरों का हक़ मारने और मद्य, मांस और वेश्यागमन जैसे निहित स्वार्थो को साधने में अपना जीवन जाया किया । जिसके कारण मेरी ऐसी दुर्गति हुई है ।”
तभी तीसरा प्रेत बोला – “ पूर्वजन्म में मैं एक वैश्य था । मैंने मिलावट खोरी की सारी हदे पार कर दी थी । अधिक पैसा बनाने के चक्कर में मैंने सस्ता और नकली माल भी महंगे दामों पर बेचा है । कंजूस इतना था कि कभी किसी को एक पैसे की भिक्षा या दान नहीं दिया । मेरे इन्हीं दुष्ट्कर्मों के फलस्वरूप मेरी यह दुर्दशा हुई है ।”
इसके बाद रुआसा होते हुए चौथा प्रेत बोला – “ पिछले जन्म में मैं एक शुद्र था । नगर की सफाई का काम मुझे ही दिया जाता था लेकिन मैं था पक्का आलसी । कभी अपने कार्य को पूरा नहीं करता था । महामंत्री से विशेष जान – पहचान होने के कारण कोई भी मेरे खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं कर पाता था । इसलिए मैं किसी की नहीं सुनता था और खुद की ही मनमानी करता था । अपनी उसी लापरवाही और उद्दंडता का परिणाम आज मैं भुगत रहा हूँ ।”
तभी आचार्य महीधर ने पांचवे प्रेत की ओर देखा तो वह अपना मुंह छिपा रहा था । यहाँ तक कि वह अपने साथियों से भी अपना मुंह छिपाए रहता था । आचार्य महीधर ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए उससे पूछा तो रोते हुए वह बोला – “ पूर्वजन्म में एक कुसाहित्यकार था । मैंने अपनी लेखनी से हमेशा सामाजिक निति मर्यादाओं का खण्डन किया और लोगों को अनैतिक शिक्षा के लिए प्रेरित किया है । अश्लीलता और कामुकता का साहित्य लिखकर लोगों को दिग्भ्रमित करना ही मेरी प्रसिद्धि का सबसे बड़ा रहस्य है । जिस किसी भी राजा को किसी राज्य पर विजय प्राप्त करनी होती, वो मुझे लोगों को चरित्रहीन बनाने वाला साहित्य लिखने के लिए धनराशि देता था और मैं अश्लीलता और कामुकता से भरपूर साहित्य लिखकर लोगों को चरित्रहीन बनाता था । मेरे उन्हीं दुष्कमों पर मुझे इतनी लज्जा है कि आज मैं किसी को भी मुंह नहीं दिखा सकता ।” इतना कहकर वह जोर – जोर से रोने लगा ।
तब आचार्य महीधर ने उनसे पूछा – “ तुम लोग यहाँ से कब मुक्त होओगे ?”
पांचो प्रेत बोले – “ हम तो अपने कर्मफल और विधि के विधान के अनुसार ही यहाँ से मुक्त हो सकते है । लेकिन तुम हमारी दुर्गति की कहानी लोगों को बता देना ताकि जो गलती हमने की वो दुसरे लोग ना करें ।” उनकी बात जन – जन तक पहुँचाने का आश्वासन देकर आचार्य महीधर वापस लौट आये ।
उस दिन वह जहाँ भी उपदेश देने जाते, उसके साथ उन पांचो प्रेतों की कथा भी जोड़ देते थे ।
शिक्षा – इस कहानी हमें यही शिक्षा मिलती है कि कर्म सिद्धांत अटल है । कोई भी उससे नहीं बच सकता है । अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि इस लोक में सुख – सुविधाओं और स्वार्थो को देखने के साथ परलोक का भी खयाल रखना चाहिए । यदि इतनी दूरदर्शिता प्रत्येक व्यक्ति में विकसित हो जाये तो हर कोई दुष्कर्म करने से कतराएँ ।