आज हम जिस विषय पर चर्चा करने जा रहे है, उसकी किसी भी साधना की सफलता में बड़ी अहम् भूमिका है । उपासना और साधना में जितने भी कर्मकाण्ड किये जाते है, उन सबका मूल उद्देश्य केवल और केवल पात्रता का विकास है । अब आप सोच रहे होंगे कि ये पात्रता क्या बला है ? तो आइये जानते है, आखिर पात्रता है क्या चीज़ ?
चाहे भौतिक जगत का क्षेत्र हो या अध्यात्म जगत का क्षेत्र, दोनों ही जगह पात्रता अनिवार्य रूप से आवश्यक है । जो व्यक्ति पात्र होता है वही अधिकारी भी होता है । उसी में उस विशेष शिक्षा या योग्यता को धारण करने की क्षमता होती है ।
पात्रता को अनिवार्य रूप से आवश्यक इसलिए बताया गया है क्योंकि पात्रता के अभाव में किया गया कार्य अनर्थकारी भी हो सकता है । लेकिन कैसे ? जैसे दुनिया में हम देखते है कि विभिन्न सरकारी या गैर सरकारी दफ्तरों में पदों के लिए उम्मीदवारों की एक विशेष परीक्षा ली जाती है । यह देखने के लिए कि वह उस पद के काबिल है अथवा नहीं । यही उनकी पात्रता अथवा योग्यता की परीक्षा है ।
आर्मी के एक जवान को बंदूक, तोपे और बारूद आदि हथियार एक विशेष प्रशिक्षण के बाद ही दिए जाते है । वही हथियार यदि किसी नौसिखिये को थमा दिए जाये तो वह उनसे किसी की रक्षा करने के बजाय, खुद का या किसी दुसरे का नुकसान ही कर सकता है ।
यह तो हो गई भौतिक दुनिया की बातें ! अध्यात्म जगत में भी किसी नवीन साधक को कोई भी शिक्षा देने से पहले उसकी पात्रता की परीक्षा होना बेहद जरुरी है । अध्यात्म जगत के प्रत्येक शिष्य का कर्तव्य है कि सच्चे गुरु का सानिध्य पाने के लिए निरंतर अपने शिष्यत्व का विकास करें । यदि आप इस रहस्य को भलीभांति हृदयंगम कर सके तो आपको किसी भौतिक गुरु के सानिध्य में जाने की कोई जरूरत नहीं । क्योंकि हम गुरु को नहीं खोज सकते, गुरु हमें खोजता है ।
महापुरुषों का इतिहास देखिये । विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस को नहीं बल्कि रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को खोजा था । शिवाजी ने समर्थ गुरु रामदास को नहीं बल्कि समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को खोजा था । चन्द्रगुप्त ने चाणक्य को नहीं बल्कि चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को खोजा था । राम, विश्वामित्र के पास नहीं गये थे बल्कि विश्वामित्र श्रीराम के पास आये थे, बला और अतिबला विद्या सिखाने के लिए । हमें केवल और केवल अपने शिष्यत्व का विकास करना चाहिए ताकि हम ईश्वरीय सद्गुरु का सानिध्य प्राप्त कर सके ।
पात्रता विकसित करने का मतलब है – स्वयं को साधना । जितनी भी तपश्चार्याये है, सब इसी निमित्त की जाती है । इस बात को अधिक गहराई से समझने के लिए राजा उदावर्त की एक छोटी सी कहानी है जो इस प्रकार है –
महर्षि कणाद और राजा उदावर्त की कहानी
एक बार राजा उदावर्त ब्रह्मविद्या का उपदेश पाने के लिए महर्षि कणाद के आश्रम में पहुंचे । बहुमूल्य रत्न आभूषणों की भेंट देते हुए ब्रह्मविद्या का उपदेश देने की प्रार्थना करने लगे ।
महर्षि ने कहा – “ राजन ! मुझे धन की कोई आकांक्षा नहीं । किन्तु यदि तुम ब्रह्मविद्या का उपदेश पाना चाहते हो तो एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करो, उसके बाद आना ।”
राजा उदावर्त लज्जित और निराश होकर लौट गया । महर्षि द्वारा इस तरह तिरस्कृत करके लौट देने से राजा बहुत क्षोभित था । वह महर्षि को अनाप – शनाप बक रहा था तभी उसकी समस्या को समझते हुए मंत्री द्युति कीर्ति ने कहा – “ राजन ! महर्षि ने यदि आपसे एक वर्ष ब्रह्मचर्य पालन की शर्त रखी भी है तो वह ब्रह्मविद्या के प्रति आपकी उत्कंठा की परीक्षा लेना चाहते है । वह ब्रह्मविद्या के प्रति आपकी पात्रता को परखना चाहते है । अनधिकारी व्यक्ति में ज्ञान को पचाने की सामर्थ्य नहीं होती है अतः ऐसे व्यक्ति के मनोरंजन के लिए दिया गया ज्ञान समय की बर्बादी के अतिरिक्त कुछ नहीं दे सकता । अतः आप महर्षि की बात का बुरा न माने और उनकी शर्त पर खरे उतरे ।”
राजा महर्षि की बात को समझ चूका था । उसने एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया और एक वर्ष बाद महर्षि कणाद के आश्रम में पहुँचा । इस बार महर्षि ने उसे गले लगाते हुए कहा – “ राजन ! अब तुम आत्मज्ञान के अधिकारी हो । महर्षि ने राजा को ब्रह्मविद्या की दीक्षा दी ।
इस कहानी से आप समझ सकते है कि आत्मविद्या की प्राप्ति में पात्रता कितनी महत्वपूर्ण है । एक बात को हमेशा गांठ बांधकर रखे । जब तक किसी इष्ट या साधना विधि के प्रति पात्रता ( श्रृद्धा, विश्वास, समर्पण, प्रेम, निष्ठा, धैर्य, निर्मलता, जिज्ञासा, एकाग्रता, विनम्रता, चरित्रनिष्ठ, ब्रह्मचर्य, पवित्रता आदि ) नहीं होगी । उस इष्ट या विधि के परिणाम मिलने में संदेह है ।
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