एक गाँव में एक धनपति सेठ रहता था । सेठ बड़ा ही लोभी और लालची स्वभाव का था । दिन – रात अपना व्यापार बढ़ाने की योजनायें बनाता रहता था । किन्तु सेठानी बड़ी ही धर्म परायण और ईश्वर भक्त थी । वह अक्सर मन्दिर में सत्संग और प्रवचन में भाग लिया करती थी । वह कभी – कभी सेठजी से भी सत्संग में शामिल होने का आग्रह करती किन्तु सेठजी है कि लगे है व्यापार विस्तार में ।
एक दिन गाँव में एक संत का आगमन हुआ । सभी लोग अपना – अपना काम – धाम छोड़कर सत्संग में जा रहे थे । सेठानी ने भी सेठजी से बहुत अनुनय – विनय किया, परन्तु उन्होंने एक ना मानी । संयोग से उस दिन सेठजी अपने एक मित्र के घर से होते हुये आ रहे थे और वह भी मित्र उस दिन सत्संग में जा रहा था ।
उसने भी सेठ से सत्संग में चलने के लिए कहा तो सेठ बोला – सत्संग से क्या मिलेगा भाई ! ये साधू – संत ऐसे ही लोगों का समय ख़राब करने आते है और अपना पेट भरते है ।
सेठ का मित्र बोला – कहना तो आपका सही है सेठ जी किन्तु यह संत कुछ विशेष है । यह किसी से कोई धन नहीं लेते है । इनका अपना कोई घर भी नहीं है और सात दिन से अधिक एक गाँव में नहीं ठहरते है । इसलिए इनके त्याग को देख कर लगता है कि यह अवश्य ही आत्मोन्नति का उपाय जानते होंगे ।
मित्र के मुख से संत की ऐसी भूरि – भूरि प्रशंसा सुन सेठ भी सत्संग में चलने के लिए तैयार हो गया ।
संत ने ३ घंटे तक स्वार्थ और परमार्थ पर लम्बा – चौड़ा प्रवचन दिया । प्रवचन समाप्त होने के बाद सब महात्मा को प्रणाम करके उठ – उठकर चलने लगे, किन्तु सेठजी अब भी वही बैठ सोच रहे थे कि महात्मा ने आत्मोन्नति का उपाय तो बताया ही नहीं !
उन्होंने अपने मित्र से पूछा तो मित्र बोला कि जाइये महात्मा से जाकर पूछ लीजिये । सेठजी उठे और महात्मा के पास जाकर बोले – स्वामीजी जी ! मेरा मित्र तो मुझे यहाँ आत्मोन्नति का उपाय बताने के लिए लाया था किन्तु आपने तो वह कहीं नहीं बताया ।
महात्मा हँसे और बोले – सेठजी ! अगर आपको आत्मोन्नति का उपाय जानना है तो आप मुझे संध्याकाल में उस पहाड़ के निकट मिलना । सेठजी ने सोचा – चलो इतना किया तो इतना और सही ।
संध्याकाल में सेठजी पहाड़ के निकट पहुँच गये । महात्मा वहाँ पांच पत्थर लेकर बैठे हुये थे । सेठजी ने महात्मा के निकट पहुंचकर उन्हें प्रणाम किया और बोले – बताइये महात्मन् !
महात्मा बोले – यह जानने के लिए तुझे मेरा शिष्य बनना पड़ेगा ।
सेठ बोला – ठीक है प्रभो ! आप मेरे गुरु मैं आपका शिष्य । अब तो बताइए !
महात्मा बोले – तू मेरा शिष्य है सो जो मैं कहूँगा सो करेगा ?
सेठ बोला – बोलिए क्या करना है ?
महात्मा बोले – बस इन पाँचों पत्थरों को इस पहाड़ की चोटी तक मेरे साथ लेकर चढ़ना है ।
सेठजी ने पाँचों पत्थर अपनी पीठ पर लाद लिए और महात्मा के पीछे – पीछे चलने लगे ।
थोडा चलने के बाद सेठजी दर्द से कराहने लगे । यह देख महात्मा बोले – चलो एक पत्थर उतार देते है । मेरा काम चार से भी चल सकता है । सेठजी ने एक पत्थर उतार दिया ।
थोड़ी देर चलने के पश्चात् फिरसे सेठजी हांफने लगे । महात्मा बोले – चलो एक पत्थर और उतार देते है । मेरा काम तीन से चल जायेगा । महात्मा से सेठजी की पीठ से एक पत्थर और उतार दिया ।
इसी तरह चलते – चलते अन्त में सेठजी की पीठ पर एक पत्थर रह गया । महात्मा ने वह भी उतरवा दिया ।
अब सेठजी महात्मा के साथ – साथ चलने लगे । जब चोटी पर पहुंचे तो सेठजी बोले – महात्मन् ! जब आपको एक भी पत्थर की आवश्यकता नहीं थी तो मुझसे बेवजह क्यों यह परिश्रम करवाया ?
महात्मा बोले – सेठजी ! यही तो आत्मोन्नति का मार्ग है ।
सेठ बोला – कैसे ?
महात्मा प्रेम से बोले – सेठजी ! पहले अपनी पीठ पर लदे काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी उन पांच पत्थरों को उतार फंकों । आत्मोन्नति पर्वत की चोटी की तरह सरल हो जाएगी ।
अब सेठजी को समझ आ गया था कि आत्मोन्नति के मार्ग के अवरोध उनके अपने दोष थे । अब सेठजी ने काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार आदि पंचक्लेशों को जड़ – मूल उखाड़ने का संकल्प लिया और चल दिए अपने घर की ओर ।
Adhbut prerna dayak …