अध्यात्म क्या हैं ? यह जानने से पहले यह जानना जरुरी है कि “ क्या अध्यात्म हमारे लिए आवश्यक है अथवा नहीं ?” हमारे मन की संरचना इस प्रकार की है कि जब तक उसके सामने किसी वस्तु विशेष की महत्ता और उपयोगिता को सिद्ध नहीं कर दिया जाता, तब तक वह उसे जानने, समझने और मानने के लिए तैयार नहीं होता हैं ।
जिस तरह अबोध बालकों को चोकलेट और टॉफी का प्रलोभन देकर समझाया जाता है । ठीक उसी प्रकार मन को भी उस विषय वस्तु अथवा क्रिया विशेष से होने वाले लाभों का प्रलोभन दिया जाता हैं । जैसे कक्षा का अध्यापक अगर विद्यार्थियों से कह दे कि “यदि तुमने यह अध्याय पढ़ लिया तो शत प्रतिशत उत्तीर्ण हो जाओगे” तो प्रत्येक विद्यार्थी उस एक अध्याय को बहुत ही ध्यान से पढ़ेगा, क्योंकि उसे पढने से उत्तीर्ण होना तय है, फिर चाहे उसे पढने में उन्हें मज़ा आये, चाहे ना आये, यही प्रलोभन है ।
यदि हम अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ाएं तो हमे ज्ञात होता है कि इस संसार का हर प्राणी किसी ना किसी क्रिया या कर्म में संलग्न हैं । यहाँ तक कि आप इस लेख को पढने में संलग्न है और मैं इसे लिखने में संलग्न हूँ । हर क्रिया या कर्म के पीछे कोई ना कोई उद्देश्य, लक्ष्य, कारण या प्रेरणा जरुर होती हैं ।
क्या ऐसा हो सकता है कि हम सबकी क्रियाओं के पीछे कोई एक सार्वजनिक प्रेरणा या लक्ष्य हो ? अगर सामान्य रूप से सोचा जाये तो “नहीं” किन्तु अगर गंभीर रूप से विचार किया जाये तो, “हाँ” हर प्राणी का अंतिम उद्देश्य दुःख और अभाव से निवृति तथा शाश्वत आनंद की प्राप्ति है । जैसे मान लीजिये मैं आपसे पूछता हूँ कि:-
मैं – “ आप कर्म (व्यवसाय, कृषि, अध्यापन आदि कुछ भी ) क्यों करते है ?”
आप – “संपत्ति और धनार्जन के लिए”
मैं – संपत्ति और धन का अर्जन क्यों करते हैं ?
आप – “अपने और अपने परिवार की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए”
मैं – अपने और अपने परिवार की आवश्यकताएं पूरी क्यों करना चाहिए ?
आप – इसलिए कि सभी सुख और शांति पूर्वक, आनंद का जीवन व्यतीत कर सके ।
अर्थात आनंद ही जीवन का अंतिम सत्य है । यहाँ कोई यह भी प्रश्न कर सकता है कि “ आनंद पूर्वक ही जीवन व्यतीत क्यों करना चाहिए ?” तो उसे जान लेना चाहिए कि आत्मा स्वयं, ईश्वर का अंश होने से आनंद स्वरूप है । इसलिए उसे आनंद ही अभीष्ट है ।
इस परम – आनंद की उपलब्धि ही मनुष्य का धर्मं और कर्त्तव्य है । जिस तरह परिवार को सुख, शांति और आनंद उपलब्ध कराने में हमें आत्मसंतोष और आनंद मिलता है, उससे हज़ार गुना ज्यादा आत्मसंतोष और आनंद परमात्मा के इस विराट विश्व को सुख, शांति और आनंद उपलब्ध कराने में निहित है । अभाव से दुःख की उत्पत्ति होती हैं और दुःख की निवृति से सुख की प्राप्ति होती है । किन्तु सुख और परम – आनंद एक नहीं है । सुख शरीर का विषय है जबकि आनंद आत्मा का विषय है ।
इस परम आनंद को प्राप्त करने की प्रक्रिया का नाम ही अध्यात्म है । अध्यात्म अर्थात आत्मानुसंधान और क्योंकि आत्मा आनंद स्वरूप है इसलिए आनंद की खोज ही हमारी मूल प्रकृति हैं ।
अतः अध्यात्म हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग है, क्योंकि हर किसी को आनंद चाहिए । लेकिन आनंद मिलेगा कहाँ ? ये पता नहीं । इसलिए यहाँ – वहाँ भटकते है । जैसे रेगिस्तान में प्यासा, चमकती रेत को देखकर पानी समझ भटकता हैं, लेकिन रेत में भला पानी कैसे हो सकता हैं ! उसी तरह इंसान सांसारिक सुखों में आनंद की झलक देखकर सरपट उनके पीछे दौड़ा चला जाता हैं, किन्तु कुछ नहीं मिलता और मिले भी कैसे ! हो तो मिले । सांसारिक सुविधाओं से सुख मिल सकता हैं, आनंद नहीं । अगर आनंद चाहिए तो आनंद स्वरूप आत्मा का अनुसंधान करना ही पड़ेगा अध्यात्म को जीवन में लाना ही पड़ेगा ।