एक बार एक पंडित जी हीरापुर नाम के गाँव में शादी करवाने जा रहे थे । रास्ता लम्बा था और पंडित जी के पास कोई साधन भी नहीं था । पंडित जी बूढ़े भी हो चले थे, इसलिए जगह – जगह पेड़ों की शीतल छाव में विश्राम करते हुए जा रहे थे ।
पंडित जी कुछ कोस चले ही थे कि संयोग से उन्हें एक गाड़ीवान मिल गया । पंडित जी गाड़ीवान के पास गये और बोले – “ भाई ! कहाँ जा रहे हो ?”
पहले तो गाड़ीवान ने पंडित जी को ऊपर से नीचे तक देखा फिर बोला – “हीरापुर जा रहा हूँ पंडित जी ।”
मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद करते हुए पंडितजी बोले – “ भाई ! मुझे भी उस गाँव में एक विवाह के प्रयोजन से जाना है । क्या तुम मुझे अपनी गाड़ी में स्थान दे सकते हो ?”
गाड़ीवान बोला – “पंडितजी गाड़ी में बिठा तो लूँगा लेकिन मुझे क्या मिलेगा ?”
पंडितजी बोले – “धन तो मेरे पास है नहीं लेकिन विवाह में मैं तुम्हे अच्छा स्वादिष्ट भोजन करवा सकता हूँ ।”
गाड़ीवान बोला – “पंडितजी ! मुझे स्वादिष्ट भोजन नहीं चाहिए, मुझे तो गुड़ खाना है, अगर वो खिला सको तो बोलो ! वरना मैं चला ।” पंडितजी सोचने लगे कि इतना बड़ा विवाह हो रहा है, वहाँ गुड़ तो अवश्य होगा । सो उन्होंने गाड़ीवान को हाँ बोल दी ।
पंडितजी शास्त्रों की बातें करते जो उसे बिलकुल नीरस लगती, फिर उसने अपनी रामकहानी सुनानी शुरू की । बातों ही बातों में कब हीरापुर आ गया, दोनों को पता ही नहीं चला ।
पंडितजी के साथ वह भी विवाह वालों के घर गया, सो उसका भी अच्छा स्वागत हुआ । विवाह दुसरे दिन होने वाला था, अतः उन दोनों को भोजन के लिए बिठा दिया ।
भोजन में दूध की मिठाई, जलेबी, गुलाब जामुन और भी तरह – तरह के मिष्ठान परोसे गये । इतना सब खाने को देखकर पंडितजी के तो मन में लड्डू फुट रहे थे लेकिन बगल में बैठा गाड़ीवान आग – बबूला हो रहा था ।
पंडितजी ने धीरे से कहा – “ अरे क्या हुआ ? ऐसा मुंह क्यों बनाये हुए हो ?”
गाड़ीवान बोला – “पंडित ! तुमने बोला था कि गुड़ मिलेगा तो बताओं कहाँ है गुड़ ?”
अपेक्षा पूर्वक पंडितजी बोले – “आएगा गुड़ आएगा ! अभी यही खाना शुरू करो ।” इतना कहकर पंडितजी मिठाई का आनंद लेने लगे । पंडितजी को खाता देख उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया । परोसकार जैसे ही बाहर गया, वह खड़ा हुआ और पंडितजी को गालियाँ बकने लगा ।
पंडितजी समझ गये कि यह एकदम गंवार और जंगली है । लगता है इसने ये मिष्ठान कभी नहीं खाए, इसलिए गुड़ की जिद कर रहा है ।
पंडितजी खड़े हुए और उसकी थाली से एक मिठाई उठाई और गर्दन पकड़कर जबरजस्ती उसके मुंह में ठूस दी । जैसे ही उसे जायका आया । झट से बैठा और पूरा थाल साफ कर गया । इस तरह पंडितजी एक थाल साफ करे इतने में वह पांच थाल उड़ा दिया ।
भोजन समाप्त करके डकार मारकर पंडितजी से बोला – “ धन्यवाद पंडितजी ! आपकी कृपा से इतना अच्छा भोजन नसीब हुआ । अगली बार जब भी कहीं विवाह हो, मुझे बुला भेजिएगा । मैं छोड़ दूंगा आपको !”
यह दृष्टान्त वास्तविकता के काफी नजदीक है । लेकिन इसका आध्यात्मिक पहलू बड़ा ही अनोखा है । पंडितजी की तरह जब हमें कोई आत्मज्ञानी गुरु कोई अमूल्य अनुभव देना चाहता है तो हम उसकी उपेक्षा करके तुच्छ इन्द्रिय सुखों की तृप्ति के लिए गाड़ीवान की तरह जिद करते है । लेकिन जब कोई समर्थ गुरु हमारी गर्दन (मन की डोर ) पकड़कर आत्मज्ञान का अनुभव दे देता है तो हम उसका महत्त्व समझ पाते है ।
लेकिन दुर्भाग्य कि आजके समय में समर्थ गुरु नहीं मिलते । और जो कोई तथाकथित समर्थ गुरु है वो झूठे और पाखंडी है । ऐसे मैं धर्म शास्त्रों की शिक्षाओं का अनुसरण कर ईश्वर को ही अपना गुरु बनाये ।