एक पौराणिक आख्यान है कि राजा उत्तानपाद के सुनीति और सुरुचि नामक दो रानियाँ थी । दोनों रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया । रानी सुनीति के पुत्र का नाम ध्रूव और सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम रखा गया । कालांतर में ध्रूव ने राजमहल छोड़ दिया और तपस्या करने चला गया और ध्रुवतारे के नाम से विख्यात हुआ । राजकुमार उत्तम को राजगद्दी पर बिठाया गया ।
राजा उत्तम बड़ा ही धर्मात्मा राजा था लेकिन एक बार अपनी पत्नी से अप्रसन्न होकर राजा उत्तम ने उसे घर से निकाल दिया और अकेला ही जीवन व्यतीत करने लगा ।
संयोग की बात है कि जिस दिन राजा उत्तम ने अपनी पत्नी को घर से निकाला, उसी दिन एक ब्राह्मण राजा उत्तम के पास आया और रोते हुए बोला – “ महाराज ! मेरी पत्नी को कोई चुरा ले गया है, यद्यपि वह स्वभाव से क्रूर, वाणी से कठोर और शक्ल – सूरत से कुरूप और अनेको कुलक्षणों से युक्त है फिर भी धर्मपत्नी होने के नाते उसकी सेवा, सहायता और रक्षा करना मेरा कर्तव्य है ।
राजा ने कहा – “हे ब्राह्मण देवता ! आप चाहे तो हम आपका दूसरा विवाह करवा देंगे ।”
ब्राह्मण बोला – “ नहीं महाराज ! शास्त्र कहता है कि पति को भी पत्नी के पत्नी के प्रति वैसे ही सुहृदय, धर्म परायण और पत्नीव्रता होना चाहिए जैसे पत्नी पति के प्रति पतिव्रता होती है ।” आखिर ब्राह्मण की बात मानकर राजा उत्तम उसकी पत्नी को खोज निकालने का वचन दिया ।
राजा उत्तम ने दशो दिशाओं में ब्राह्मण की पत्नी की खोज के लिए अपने सैनिको को भेजा और स्वयं भी ब्राह्मण को साथ लेकर जंगल की ओर रवाना हुआ । ब्राह्मण की पत्नी को ढूंढते – ढूंढते राजा उत्तम काफी दूर निकल आया था । तभी उन्हें एक तपस्वी महात्मा का आश्रम दिखाई दिया । राजा ने महात्माजी का आशीर्वाद लेने की सोची और आश्रम के द्वार पर पहुंचे ।
राजा को अपना अतिथि जान महर्षि ने अपने शिष्य को विशिष्ट स्वागत सामग्री लाने का आदेश दिया । लेकिन तभी शिष्य ने चुपके से महर्षि के कान में एक गुप्त बात कहीं, जिससे महर्षि ने राजा का कोई स्वागत उपचार नहीं किया और सामान्य रीति से आने का प्रयोजन पूछने लगे ।
महात्मा के स्वभाव में इस जमीन – आसमान जैसे परिवर्तन को देखकर राजा उत्तम को बड़ा आश्चर्य हुआ । राजा ने विनम्र भाव से पूछा – “ मुनिवर ! मैं अपने आने का प्रयोजन तो बाद में बताऊंगा, पहले आप मेरी शंका का समाधान करें ।”
महर्षि बोले – “ कैसी शंका ?”
राजा उत्तम बोला – “ हे मुनिवर ! कुछ समय पहले आप मेरा स्वागत करने के लिए अधीर थे और अचानक से आपने स्वागत का कार्य स्थगित कर दिया । इसका क्या रहस्य है ?”
गंभीर होते हुए महर्षि बोले – “ राजन ! आपने अपनी धर्मपत्नी को त्यागकर वही पाप किया है जो कोई स्त्री अपने पति को त्यागकर करती है । शास्त्र कहता है कि यदि स्त्री दुष्ट स्वभाव की ही क्यों न हो, उसका पालन और संरक्षण करना पति का धर्म और कर्त्तव्य है । आप अपने पत्नीधर्म से विमुख होकर केवल तिरस्कार, निंदा और घृणा के पात्र है । आपके पत्नी त्याग का पाप मालूम होने के कारण ही आपका स्वागत स्थगित करना पड़ा ।”
महर्षि की बात सुनकर राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ । उसे अपने किये पर पश्चाताप हो रहा था । अब राजा उत्तम ब्राह्मण की स्त्री के साथ – साथ अपनी स्त्री को भी ढूंढने लगा ।
शिक्षा – इस कहानी यही शिक्षा मिलती है कि अनेको दोष होने के बावजूद भी देवताओं की साक्षी में पाणिग्रहण की हुई स्त्री का परित्याग नहीं करना चाहिए । बल्कि पतिव्रता स्त्री जैसे अपने सद्व्यवहार से दुर्गुणी पति को सुधारती है वैसे ही पति को भी अपनी पत्नी को सुधारना और सुधरने के मौका देना चाहिए । त्याग करना तो कर्तव्य से विमुख होना है ।