अध्यात्म विज्ञान के सिद्धांतों के अंतर्गत एक नियम यह भी है कि “तप से तेज की उत्पत्ति होती है” । यह बात सतयुग में जितनी सार्थक थी, उतनी ही आज भी सार्थक है । साधना के साथ जो संयम और नियम के कड़े प्रतिबंध लगाये गये है, वह तप के ही साधन है, जिनसे प्राण उर्जा रूपी ओज और तेज को संग्रह करने की योग्यता विकसित होती है ।
जब कोई भी साधक तप से तपकर तेजरूप हो जाता है तभी “साधना से सिद्धि” की उक्ति सार्थक सिद्ध होती है । किन्तु समर्पित साधको को छोड़कर सामान्य मनुष्यों का तेज नाना प्रकार से नाश होता रहता है ।
तेज की अपनी ही विशिष्ट महिमा है । जो मनुष्य तपस्वी होता है, वह अजेय होता है । तप की पूंजी सभी पूंजियों से बड़ी है । इसलिए प्राचीनकाल में जब भी कोई विपत्ति आती थी । ऋषि मुनि तप करते थे । जब किसी देव या दानव को शक्ति, सिद्धि या वरदान की आवश्यकता होती थी तो वह तप करता था । तप के प्रभाव से ही महर्षि दधिची अपनी अस्थियों से वज्र जैसा दिव्यास्त्र बनाने में सक्षम हुए । तप के प्रभाव से ही भगीरथ ने गंगा को स्वर्ग से धरती पर आने के लिए विवश कर दिया । ऐसे सैकड़ो उदहारण है जो तप की महत्ता को बताते है ।
कोई भी मनुष्य इस तप तेज की पूंजी को संचित करके अपनी महिमा बढ़ा सकता है और इसे विनष्ट करके अपने ही विनाश का कारण बन सकता है । शरीर में यह तप का तेज ही ओज के रूप में परिलक्षित होता है । जिससे आँखों में ओज, चेहरे पर तेज, वाणी में माधुर्य और प्रभाव, इन्द्रियों में क्रियाशीलता, मस्तिष्क में बुद्धिमत्ता, धैर्य, साहस, निर्भयता आदि गुण परिलक्षित होते है ।
लेकिन जब इस तप तेज रूपी पूंजी का नाश होता है तो इन्सान अन्य सभी प्रकार से धनवान होते हुए भी निर्धन और कंगाल हो जाता है । इसी सत्य को सिद्ध करती हुई एक पौराणिक कथानक इस प्रकार है –
तप पूंजी की महत्ता की कहानी
प्राचीन समय की बात है, जम्भासुर नामक दुष्ट और पराक्रमी दैत्य ने प्रचण्ड तप करके ऐसी शक्ति प्राप्त की जिससे उसने देवताओं को पराजित करके स्वर्गलोक को अपने अधीन कर लिया । त्राहि – त्राहि करते हुए सभी देवगण गुरु बृहस्पति के पास पहुंचे और अपनी व्यथा सुनाई ।
गुरु बृहस्पति समस्त देवताओं को लेकर भगवान विष्णु की शरण में गये और उनसे प्रार्थना करने लगे । भगवान विष्णु मुस्कुराये और बोले – “ किसी उपाय से जम्भासुर को मेरे पास ले आओ ।”
देवता जम्भासुर के पास पहुंचे और फिर से उसे युद्ध के लिए चेतावनी दी । जैसे ही जम्भासुर ने आक्रमण किया, देवता भागते – दौड़ते भगवान विष्णु के पास आ गये । जम्भासुर भी देवताओं के पीछे – पीछे भगवान विष्णु तक पहुँच गया । पास ही बैठी लक्ष्मीजी के रूप – सौन्दर्य और वैभव को देखकर जम्भासुर लक्ष्मीजी की सुन्दरता पर मुग्ध हो गया । देवताओं से युद्ध छोड़कर वह लक्ष्मीजी का हरण करके चलता बना ।
भगवान विष्णु यह सब देख रहे थे । उन्होंने देवगुरु बृहस्पति की ओर संकेत किया और उन्होंने देवताओं से कहा – “ अब प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, अब इसपर आक्रमण करो, निश्चय ही जीत देवताओं की होगी और यह दुष्ट दैत्य मारा जायेगा ।”
देवता आश्चर्य से गुरु बृहस्पति की ओर देखने लगे और बोले – “ इतनी बार आक्रमण किया तब तो हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके और अब जब वह लक्ष्मीजी को भी उठा ले गया तो उसका साहस और भी अधिक बढ़ गया है । अब उसे हराना असंभव है ।”
तब देवगुरु बृहस्पति मुस्कुराते हुए बोले – “ पर नारी पर कुदृष्टि डालने के कारण अब उसका पूर्व संचित तप नष्ट हो गया है और काम के उद्दीप्त होने से उसका तेज नष्ट हो गया है । अतः अब इसे हराना बिलकुल भी कठिन नहीं ।” गुरु बृहस्पति की बात सुनकर देवताओं ने फिर से जम्भासुर पर आक्रमण किया और उसे परास्त ही नहीं किया बल्कि यमपुरी भेज दिया ।
शिक्षा – इस कहानी से सबसे अहम् शिक्षा यही मिलती है कि पर नारी पर कुदृष्टि डालना अपनी ही तप पूंजी को विनष्ट करना है । इसके साथ ही ब्रह्मचर्य ही तेज के संरक्षण का सबसे सार्थक और उचित उपाय है । शास्त्रों में ब्रह्मचर्य को सबसे श्रेष्ठ तप कहा गया है । इसीलिए प्रत्येक आध्यात्मिक साधना के साथ ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य रूप से आवश्यक है ।