एक ब्रह्मचारी का जीवन अथाह ज्ञान से संपन्न होता है, लेकिन उसमें भी अनुभव की कमी होती है । स्नातक कपिल की मनःस्थिति भी कुछ ऐसी ही थी । नित्य की तरह आज भी भिक्षु कपिल नगर में घूम – घामकर आया और नगरसेठ प्रसेनजित के द्वार आकर भिक्षा के लिए गुहार लगाई – “भवति भिक्षां देहि”
जब नगरसेठ प्रसेनजित की अनिद्य सुन्दर सेविका मधुलिका भिक्षा लेकर द्वार पर आई तो भिक्षु कपिल उसके गौरवर्ण और सौन्दर्य से अपनी दृष्टि नहीं हटा पा रहे थे । कुछ क्षणों के लिए उमंगो का ऐसा तूफान आया, जिसके केंद्र में यह दोनों एक – दुसरे को निहारते हुए स्तब्ध खड़े थे । सौन्दर्य की प्रतिमा नवयौवना मधुलिका और सुदीर्घ वक्ष, उन्नत ललाट सुकुमार कपिल लम्बे समय तक एक दुसरे को ऐसे ही एकटक देखते रहे, जैसे आँखों के रास्ते उनके मन के तार जुड़ चुके हो और बातों का सिलसिला शुरू हो गया हो । वहाँ शब्दों का अभाव था लेकिन अर्थो का नहीं । आचार्य इन्द्रदत्त के शिष्य कपिल स्नातक, बुद्धिमान और ब्रह्मचारी थे किन्तु कुछ समय के लिए उनके सम्पूर्ण ज्ञान को मधुलिका नाम का ग्रहण लग गया था । कपिल भिक्षा लेने गये थे लेकिन सौन्दर्य पर स्वयं मुग्ध हो आये ।
अब तो जब भी अवसर मिलता कपिल उसी सौन्दर्य के दर्शन करने पहुँच जाता था । जब रोज – रोज की उत्सुकता और आकर्षण कपिल को उस द्वार पर खिंच ले गई, तब शुरू हुई पतन की करुण दास्ताँ । कपिल का मन उस सुंदरी के सौन्दर्य का दीवाना हो चूका था । इसी के चलते उसने अपनी विद्या खोई, समय खोया । धीरे – धीरे वह अपना ओजस – तेजस भी उस पर लुटाने लगा । लेकिन वासना कब शांत होने वाली थी ! इतिहास गवाह है कि कितने ही बड़े बड़े विद्वानों को वासना ने धुल चटाई है । यह तो महज एक शुरुआत थी।
वसंत पर्व का समय था । सभी नगर कन्याएं विभिन्न प्रकार के वस्त्रालंकार से स्वयं को सजाने में व्यस्त थी । मधुलिका सुंदरी तो थी, लेकिन साथ ही वह एक निर्धन सेविका भी थी । अपनी आकांक्षाओं को पूरी करने के लिए उसने अपने प्रेमी कपिल से सौ स्वर्ण मुद्राओं की मांग की । लेकिन कपिल तो एक स्नातक था । वह केवल शिक्षा के लिए कोशाम्बी से यहाँ रहने आया था । उसके पास भला स्वर्ण मुद्राएँ कहाँ से आएगी । इस बात से वह भलीभांति परिचित थी । अतः उसी ने युक्ति भी बताई ।
मधुलिका बोली – “ मैंने सुना है, श्रावस्ती नरेश बड़े ही दानी राजा है । वह अवश्य आपको सौ स्वर्ण मुद्राएँ दे देंगे । अतः आप भिक्षा के लिए उनके पास जाइये ”
प्रेम में मरता, भला ! क्या न करता । चल दिया श्रावस्ती की ओर । चलते – चलते संध्या हो चुकी थी । नगर पहुँचने में रात हो गई । उन्हें कल ही स्वर्ण मुद्राएँ अपनी प्रियतमा मधुलिका तक पहुंचानी थी । अतः वह रात के अँधेरे में ही नरेश के द्वार पर पहुँचे । रात्रि में एक अजनबी याचक को आया देख प्रहरी को शंका हो गई । प्रहरी ने कपिल को दस्यु समझा और उठाकर बंदीगृह में डलवा दिया । सुंदरी के प्रेम में पागल कपिल ने आत्मसम्मान भी खोया और प्रहरी की प्रताड़ना सही जो अलग । रातभर बंदीगृह में पड़े रहने के बाद सुबह उसे राजदरबार में नरेश के सामने पेश किया गया ।
कपिल ने निडरता से अपनी सारी प्रेम कहानी सुना दी । कपिल की सत्य निष्ठा और निश्छलता से राजा बड़ा प्रभावित हुआ । राजा बोला – “ हे युवक ! मुझे तुम्हारे प्रेम से सहानुभूति है । तूम जो चाहो मांग सकते हो ।”
पहले कपिल ने सोचा “ सौ स्वर्ण मुद्राएँ”, फिर विचार आया “सहस्त्र भी मांग लू तो मिल जाएगी” फिर उसका लालच और अधिक बढ़ा ! सोचने लगा “ सहस्त्र ही क्यों ! एक लक्ष क्यों नहीं ?” कहा भी गया है – “जिमी प्रतिलाभ लोभ अधिकाई”। अंततः उसने सोचा – “ क्यों न ऐसा कुछ माँगा जाये कि जीवन भर मधुलिका के साथ प्रेमपूर्वक रह सकूं ।” बस फिर क्या था !
ऐसा विचार आते ही वह बोल उठा – “ आपका सम्पूर्ण राज्य मुझे दे दीजिये ।” याचक के यह शब्द सुनकर पूरा दरबार स्तब्ध रह गया । सब आपस में बहस करने लगे कि ये भिक्षु पागल हो गया है । किन्तु श्रावस्ती नरेश बिलकुल भी विचलित नहीं हुए ।
श्रावस्ती नरेश बोले – “ आजसे यह राज्य तुम्हारा याचक ! मैं तो वैसे भी निसंतान हूँ । राजसिक भोगों से क्षुब्ध हो चूका हूँ । मैं कितने ही दिनों से सोच रहा था कि कोई योग्य व्यक्ति मिले तो राज्यभार उसे सौंपकर निश्चिन्त होकर आत्मकल्याण के लिए प्रयास करूँ । किन्तु आज तुमने मेरे सिर से यह भार उतारकर मुझपर बड़ी कृपा की । आजसे श्रावस्ती तुम्हारी ।”
याचक कपिल नरेश के यह वचन सुनकर स्तब्ध रह गया । वह स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था । वह गहरे विचारो के समुन्द्र में गोते लगाने लगा । सोचने लगा – “ क्या आत्मकल्याण का रास्ता, आत्मशांति इतनी महत्वपूर्ण है कि उसपर इतना बड़ा राज्य न्योछावर किया जा सकता है । अगर ऐसा है तो मैं महामूर्ख हूँ । मैंने अपनी शिक्षा को कलंकित किया है । अपने गुरु का अपमान किया है । मुझसे गलती हो गई ।” यह सब सोचकर उसकी आँखों में आंसू आ गये ।
अपनी गलती को सुधारते हुए कपिल बोला – “ क्षमा कीजिये महाराज ! मुझे नहीं चाहिए आपका राज्य । मैं श्रेय से भटककर प्रेय की ओर चला गया था । मुझे वासना प्रिय लगने लगी थी । लेकिन अब मैं वापस प्रेय से श्रेय की ओर प्रस्थान करूंगा ।” परिवर्तन के इन महान क्षणों में कपिल की आँखों में तेज और वाणी में दृढ़ता थी । सभी सभासद अचंभित थे कि यह कैसा विचित्र याचक है जो चंद स्वर्ण मुद्राएँ पाने के लिए रातभर बंदीगृह में पड़ा प्रताड़ित हुआ और अब जब सबकुछ मिल रहा है तो छोड़कर चल दिया । आश्चर्य !
देखते ही देखते कपिल दूर – बहुत दूर क्षितिज में विलीन हो गया ।
