क्या कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आप गुस्सा नहीं करना चाहते है फिर भी गुस्सा आ जाता है । ऐसा गुस्सा आता है कि आप कुछ ऐसा कर बैठते है, जिसके लिए बाद में केवल पश्चाताप के सिवाय कुछ नहीं किया जा सकता ।
क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आप कोई गलती नहीं करना चाहते है, किन्तु कर जाते है । जैसे अत्यधिक खाना, झूठ बोलना, हिंसा करना, किसी का दिल दुखाना, अत्यधिक सोना, आलस्य, प्रमाद, निंदा करना, चोरी करना, ब्रह्मचर्य का हनन, कुविचारों का चिंतन, अनुशासनहीनता आदि पाप कर्मों का आचरण करना । जो कि आप नहीं करना चाहते, किन्तु कर जाते है, क्यों ?
एक दूसरा पहलु भी है ! क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आप स्वतः किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर ज्ञान – ध्यान, साधना – स्वाध्याय, उपासना – आराधना, दान – पुण्य, संयम – नियम और प्राणीमात्र से प्रेम आदि सात्विक कर्मों से भर उठते है । ऐसा क्यों होता है ?
आख़िरकार ऐसी कोनसी शक्ति है जो हमें कभी गलत राह पर तो कभी सही राह पर अग्रसर करती है, ऐसी कोनसी प्रेरणा है जो हमें कभी इन्सान तो कभी शैतान बना देती है ?
तो आइये जानते है आज इस अपरिचित मानव स्वभाव का रहस्य !
मानव स्वभाव का रहस्य ! मैंने अध्यात्म में प्रवेश करने से पहले कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मैं क्या सोचता हूँ और क्या करता हूँ ? क्योंकि उससे पहले तक मेरा जीवन जानवरों की तरह पूर्वजन्म के संस्कारों के आधार पर चल रहा था । जो कुछ थोड़ी जानकारी समाज से विरासत के रूप में मिली थी उसी से अपने जीवन की नाव को धक्के मार रहे थे ।
मेरे उस व्यवहार से ना तो मेरा परिवार खुश था ना ही मुझे ही कोई संतुष्टि थी । ना जाने किस अनजानी कमी का अहसास मेरे पीछे साये की तरह लगा रहता था ।लेकिन जबसे मैंने अध्यात्म की राह को अपनाया तबसे ना वह अजनबी साया रहा ना ही इस संसार की माया रही । अब ना तो मुझे कभी कोई कमी सताती है, ना ही कभी कोई समस्या मेरी अकेलेपन की शांति को भंग कर पाती है ।
मैंने यह सब कैसे किया, यही मैं आपके साथ शेयर करता हूँ
यह सम्पूर्ण सृष्टि तीन गुणों का परिणाम है – सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण । वस्तुतः देखा जाये तो सर्वत्र केवल सत्त्व ही व्याप्त है, रज और तम केवल सांसारिकता के संसर्ग से उत्पन्न प्रभाव मात्र है । मिसाल के तौर पर अंधकार का कोई अस्तित्व नही है, प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है । उसी तरह सत्त्व का अभाव ही रजस और तमस के रूप में परिलक्षित होता है ।
उदाहरण के लिए जिस तरह आसमान से गिरा शुद्ध जल विभिन्न नदी, नहरों और वनों से होता हुआ समुन्द्र में मिलते – मिलते गन्दा और खारा हो जाता है । उसी तरह आत्मा में विद्यमान सत्त्व सांसारिक क्रिया – व्यापारों ( अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश) से होते हुए रजस और तमस में परिवर्तित हो जाता है । जिस तरह विभिन्न उपकरणों के माध्यम से समुन्द्र के खारे पानी को आवश्यकतानुसार पीने योग्य बनाया जा सकता है, उसी तरह योगानुष्ठान के माध्यम से रजस और तमस को सत्त्व में परिवर्तित किया जा सकता है ।
जब तक सत्त्व में रजस और तमस का अंश विद्यमान है तब तक वह अपना प्रभाव पूर्ण रूप से स्थापित नही कर सकता और जीव की प्रवृति सांसारिकता की ओर बनी रहती है ।
तीनों गुणों का प्रभाव कैसे होता है, यह मनुस्मृति में इस तरह बताया गया है –
जो गुण जिस जीव में अधिकता से वर्तता है, वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर देता है । अर्थात् जो सतोगुण अधिकता से वर्ता गया हो तो जीव सतोगुणी ( देवता, ऋषि, तपस्वी, योगी होगा ), जो रजोगुण अधिकता से वर्ता गया हो तो जीव रजोगुणी होगा (सामान्य मनुष्य) और जो तमोगुण अधिकता से वर्ता गया हो तो जीव तमोगुणी ( हिंसक, राक्षस ) होगा ।
जब आत्मा में ज्ञान हो तब सत्त्व, जब अज्ञान रहे तब तम, और जब आत्मा रागद्वेष में लगा रहे तब रजोगुण जानना चाहिए ।
ये कैसे ज्ञात हो ?
जब आत्मा में प्रसन्नता हो, मन प्रसन्न हो, प्रशांत के सदृश शुद्धज्ञानयुक्त हो, अदृश्य प्रेरणा से आनंदित हो तब समझना चाहिए कि सतोगुण प्रधान है । रजोगुण और तमोगुण अप्रधान है ।
जब आत्मा और मन दुखी, उदास, विषयों में चंचल, प्रसन्नता रहित हो तो समझना चाहिए कि रजोगुण प्रधान है । सतोगुण और तमोगुण अप्रधान है ।
जब आत्मा और मन मोह में फसा हुआ हो, विषयों में आसक्त हो, बिना किसी विवेक और तर्क – वितर्क के विषयों का अनुगमन करें, तब जान लेना चाहिए कि तमोगुण प्रधान है । सतोगुण और रजोगुण अप्रधान है ।
मनुस्मृति में इनके उदय का जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट जो फल होता है, वह इस तरह बताया गया है –
जब सत्त्वगुण का उदय होता है, तब वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म क्रिया और आत्मा का चिंतन होता है, यही सत्त्वगुण का लक्षण है ।
जब रजोगुण का उदय होता है और सतोगुण और तमोगुण का अंतर्भाव होता है, तब आरम्भ में रुचिता, धैर्यत्याग, असत कर्मों का ग्रहण, निरंतर विषयों की सेवा में प्रीति होती है । तभी समझ लेना चाहिए कि रजोगुण मुझमें प्रधानता से वर्त रहा है ।
जब तमोगुण का उदय होता है, सतोगुण और रजोगुण का अंतर्भाव होता है, तब अत्यंत लोभ, मोह, आलस्य, निद्रा, धैर्य का नाश, क्रूरता, हिंसा- हत्या, बलात्कार – व्यभिचार, नास्तिक्य और एकाग्रता का अभाव होता है । तभी समझ लेना चाहिए कि मुझमें तमोगुण प्रधानता से वर्त रहा है ।
विद्वान मनुष्य को चाहिए कि भलीप्रकार गुणों का निश्चय करके कर्मों का निर्धारण करें – गुणों के अन्य लक्षण निम्न प्रकार है –
जब अपना आत्मा जिस किसी कर्म को करके, करता हुआ और करने की इच्छा से लज्जा, शंका और भय को प्राप्त होवे, तब जान लो कि मुझमें तमोगुण प्रवृद्ध है ।
जब अपना आत्मा जिस किसी कर्म से इस लोक में प्रसिद्धि चाहता है, दरिद्र होने पर भी दान देना नहीं छोड़ता, अयोग्य होते हुए भी दिखावा करना नहीं छोड़ता तब जान लेना चाहिए कि मुझमें रजोगुण प्रधान है ।
जब अपना आत्मा सब कुछ जानना चाहे, सद्गुणों को ग्रहण करें, अच्छे कर्मों में कभी लज्जा, शंका और भय ना करें अर्थात धर्माचरण में रूचि ले, तब जानना चाहिए कि मुझमे सत्त्वगुण प्रधान है ।
तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का लक्षण अर्थ संग्रह और सतोगुण का लक्षण धर्माचरण है । तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से सतोगुण श्रेष्ठ है ।
यह गुण ही है जो हमें कभी इन्सान तो कभी शैतान बना देते है । अपनी मनःस्थिति के विषय में जितनी भी आवश्यक जानकारी थी वह मैंने आपको बताने की कोशिश की । इसके अलावा कोई शंका हो अथवा इससे सम्बंधित आपका अपना कोई अनुभव होतो हमारे साथ शेयर जरुर करें । यदि आपको यह लेख उपयोगी लगे तो अपने दोस्तों को शेयर करना न भूले ।