एक दिन एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया, जानवरों का पीछा करते – करते उसे एक महात्मा मिल गये । महात्मा बड़े ही शांत, सोम्य और तपस्वी स्वभाव के योगी थे । कुछ समय महात्मा के संग में रहने से राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई । राजा ने सोचा कि “ इनके सानिध्य में रहने मात्र से इतने आनंद और प्रसन्नता की अनुभूति होती है, अतः कुछ दिन के लिए इन्हें राजमहल में रखना चाहिए ।” ऐसा विचार करके राजा ने महात्माजी से राजमहल चलने के लिए आग्रह किया । लेकिन महात्माजी ने मना कर दिया ।
राजा को तो एक ही सनक सवार थी कि “कैसे भी करके महात्माजी जी को राजमहल ले जाना है ।” राजा ने कहा – “ महाराज ! हमारे नगर में लोगों का आग्रह है कि उन्हें किसी उच्च कोटि के विद्वान महात्मा से प्रवचन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो । इसी हेतु से मैं आपके पास आया हूँ । अतः कृपा करके मेरे साथ चलिए ।” लोककल्याण की बात सुनकर महात्माजी चलने के लिए तैयार हो गये ।
राजमहल पहुँचते ही महात्माजी का बड़ा ही आतिथ्य सत्कार किया गया । भोजन में महात्माजी को नाना प्रकार के मिष्ठान्न और पकवान परोसे गये । महात्माजी पहली बार ऐसा अनोखा भोजन करके कृत्य – कृत्य हो गये । राजा और महारानी दोनों महात्मा की सेवा करके आनंद की अनुभूति कर रहे थे ।
प्रथम दिन तो राजा ने महात्माजी को अपने अपार धन – वैभव के दर्शन कराएँ । पूरा राज्य का परिभ्रमण करवाया । महात्माजी इस सेवा – सुश्रुषा और राजसिक रहन – सहन के अभ्यस्त नहीं थे । अतः इस राजसिक परिवेश के कारण उनकी दैनिक उपासना – साधना में विघ्न उपस्थित होना स्वाभाविक था । दुसरे दिन महात्माजी ने लोककल्याण के हित प्रवचन देने का आग्रह किया, जिस उद्देश्य से वह आये थे । प्रवचन तो महज एक बहाना था । राजा उन्हें अपनी निजी प्रसन्नता के लिए लाया था । लेकिन कहीं महात्माजी नाराज न हो जाये, इसलिए राजा ने नगर के चौपाल पर सत्संग का आयोजन करवा दिया ।
तीन दिन बाद राजसिक परिवेश और खान – पान का असर महात्माजी पर होने लगा । उनका मन विकारों से ग्रसित होने लगा । रात्रि का समय था । सुन्दर और रूपवती दासियों को देखकर उनका मन विचलित हो उठा । एक लम्बे समय से ब्रह्मचारी व्यक्ति में काम का आवेग समुन्द्र में आये तूफान की तरह होता है । यदि सब्र का बांध टूट जाये तो उसे बहने से कोई नहीं रोक सकता । महात्माजी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । उन्होंने अपनी सेवा में उपस्थित एक सुन्दर युवती के साथ प्रेमप्रसंग का प्रस्ताव रखा । युवती को तो विशेष रूप से महात्माजी की सेवा के लिए रखा गया था । अतः उसने उचित – अनुचित पर विचार न करके प्रेम प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । उस सुंदरी से सम्बन्ध बनाकर महात्माजी ने अपने ब्रह्मचर्य तप का पतन कर लिया । किन्तु यही पतन का अंत नहीं था । एक दुष्कर्म अपने साथ कई दुष्कर्मों को जन्म देता है ।
अब महात्मा सोचने लगे कि “यह सब यदि राजा को पता चला तो मेरी बहुत निंदा होगी ।” अतः अब महात्माजी ने रातोंरात फरार होने की सोची . तभी लोभ ने अपना कमाल दिखाया और महात्माजी अपने जीवन निर्वाह के लिए महारानी का हीरों से जड़ा बेशकीमती हार चुरा लिया । महात्माजी को राजमहल में आने – जाने में कोई रोक – टोक नहीं थी । अतः वह रात्रि में बड़ी ही आसानी से राज्य की सीमा से बाहर निकल गये । राजा के डर से एक पहाड़ी पर जाकर छुप गये ।
इधर सुबह होते ही महल में खलबली मच गई । पुरे राज्य में चोर महात्मा द्वारा महारानी का बेशकीमती हार चुराकर भागने के चर्चे चल रहे थे । राजा के सिपाही राज्य के चप्पे – चप्पे तक बिखर चुके थे । लेकिन महात्मा का कोई अता – पता नहीं लगा ।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन, दिन प्रतिदिन भूखे रहने से महात्माजी पर से दूषित अन्न का प्रभाव कम होता जा रहा था । अब उन्हें अपनी गलती पर भारी पश्चाताप हो रहा था । आखिर चालीस दिन बाद महात्मा जी पूरी तरह से दूषित अन्न से मुक्त हो चुके थे । उनका मस्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो रहा था । अब उनमें अपनी गलती स्वीकार करने की क्षमता आ चुकी थी । उस चुराए हुए हार को लेकर वह राजा के दरबार में पहुंचे ।
महात्माजी को ऐसे आता देख पूरा राजदरबार अचंभित था । महारानी का हार लौटाते हुए महात्माजी ने अपना गुनाह स्वीकार कर लिया और राजा से दंड देने का आग्रह करने लगे । काफी देर तक सोचने के बाद राजा बोला – “ आपके लिए दंड का विधान करने से पहले मैं जानना चाहूँगा कि आखिर आपके साथ ऐसा क्या हुआ ? जो एक सज्जन महात्मा से रातोंरात आप चोर बन गये और चालीस दिन बाद मेरे सामने आकर अपना अपराध स्वीकारते हुए, दंड का आग्रह कर रहे है । कृपा करके मुझे इसका रहस्य बताइए ?”
महात्माजी बोले – “ यदि आप जानना ही चाहते हो राजन तो सुनो ! यह सब दूषित अन्न का प्रभाव है । राजसिक अन्न के प्रभाव से मेरे योगी मन में राजसिक संस्कारों का समावेश होने लगा । तदन्तर मेरी बुद्धि विकारों से मलिन हो गई । जिससे मेरा मन इन्द्रियों के आवेश में बहने लगा । मैं अपना विवेक खो चूका था और उसी के परिणामस्वरूप ये सब दुष्कर्म किया । अतः मेरा आपसे विनम्र आग्रह है कि मुझे यथायोग्य दंड देकर अपने पाप का प्रायश्चित करने का अवसर प्रदान करें ।”
यह सुनकर राजा बोला – “ दंड तो मुझे मिलना चाहिए, मैं ही अपनी प्रसन्नता के लोभ से आपको राजमहल ले आया और एक महात्मा के पतन का कारण बना । अब मैं यह राजपाठ सब छोड़कर आपके साथ जंगल में आपके सानिध्य में रहकर अपने पाप का प्रायश्चित करूंगा ।” यह कहकर राजा ने अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठा दिया और महात्मा के साथ वन में जाकर तप करने लगा ।
शिक्षा – इस कहानी में कई शिक्षाएं छुपी हुई है । जिनमें से प्रमुख शिक्षा तो यही है कि दूषित अन्न अपना प्रभाव अवश्य छोड़ता है । इस सम्बन्ध में बाबूराम ब्रह्म कवि की बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ है –
अन्न ही बनावे मन, मन जैसी इन्द्रियाँ हो
इन्द्रियों से कर्म, कर्म भोग भुगवाते है ।
अन्न से ही वीर क्लीब, क्लीब वीर होते देखे
अन्न के प्रताप से योगी भोगी बन जाते है ।।
अन्न के ही दूषण से तामसी ले जन्म जीव
अन्न की पवित्रता से देव खिंच आते है ।
मृत्युलोक से हे ब्रह्म मोक्ष और बंधन का
वेद आदि मूल तत्व अन्न ही बताते है ।।
इसी के साथ इस कहानी से यह सीख भी मिलती है कि जो जैसा करता है उसके साथ भी वही होता है । जैसे राजा ने अप्रत्यक्ष रूप से महात्मा के तप की चोरी करने की कोशिश की । फलतः उसकी महारानी का हीरों का बेशकीमती हार चोरी हो गया । इसी के साथ प्रत्येक विद्वान साधक को भी सावधान होना चाहिए कि “कहीं कोई उसकी तप – साधना का इस्तेमाल किन्हीं अनुचित प्रयोजनों के लिए तो नहीं किया जा रहा है ।”