प्रेम का रूपांतरण
स्त्रियाँ स्वभाव से ही कोमल होती है इसलिए जब उनके सौन्दर्य और गुणों का वर्णन किया जाता है तो विद्वान कवि सर्वोत्तम कोमल वस्तुओं के अलंकार प्रस्तुत करते है । स्त्रियाँ साक्षात ममता और प्रेम का सागर होती है । इसी को दर्शाने वाली यह कहानी आपको जीवन के एक नये सत्य से परिचित कराएगी ।
प्राचीन समय की बात है, प्रमोदिनी नामक राजकुमारी सुन्दर नगरी की महारानी बनी । जैसी नगरी वैसी रानी, सुन्दरता में प्रमोदिनी का कोई सानी नहीं था । महारानी बनने के बाद प्रमोदिनी ने एक सुन्दर कन्या कुसुमलता को जन्म दिया । महारानी प्रमोदिनी अपनी इकलोती पुत्री कुसुमा को बहुत प्रेम करती थी ।
पांच वर्ष की वय में अकस्मात् कुसुमा काल के गाल में समा गई । अपनी परमप्रिय पुत्री की अकाल मृत्यु से प्रमोदिनी हिल गई । उसे ह्रदय में ऐसा लगा मानो वज्रपात हुआ हो । प्रमोदिनी कुसुम के मरने के बाद भी कई दिनों तक शमशान में जाकर रोने लगती । अपनी पुत्री के प्रति यह राग उसे जीने नहीं दे रहा था ।
इसी तरह एक दिन शोकाकुल महारानी प्रमोदिनी शमशान में बैठकर रो रही थी कि अचानक एक महर्षि वहाँ से गुजर रहे थे । जब उन्होंने यह दृष्टान्त देखा तो अचंभे से आस – पास के लोगों को पूछने लगे । जब उन्हें पूरी बात समझ आ गई तो वह प्रमोदिनी के पास जाकर बोले – “ बेटी ! जो जा चुके है, उनके लिए शौक करने से क्या लाभ । इस शमशान में इससे पहले भी कई लोग खाक हो चुके है यदि उनके घर वाले भी इसी तरह नित्य यहाँ आकर रुदन करना शुरू कर दे तो कल्पना करो, क्या दशा होगी तुम्हारे राज्य की। तुमने भले ही अपनी परमप्रिय हो गवाया हो किन्तु उसने अपनी मंजिल को पा लिया है । यदि तुम भी अपनी आत्मा को गंवाना नहीं चाहती तो यह मोह त्याग दो और आत्मानुसंधान करो । तुम भी उस लोक को पा लोगी जहाँ तुम्हारी परमप्रिय बेसब्री से तुम्हारा इंतजार कर रही है ”
महारानी प्रमोदिनी को महर्षि की बात समझ आ गई । उनसे इस ज्ञान को ह्रदय में धारण किया और क्षण भर में दुःख से विलग हो गई । प्रजापालन और आत्मानुसंधान को अपना लक्ष्य बना लिया ।
उसका प्रेम अब अपनी पुत्री में नहीं अपितु अपनी प्रजा में चला गया । यही है प्रेम का रूपांतरण । जब हम खुद से प्रेम करते है, अपनी आत्मा से प्रेम करते है, अपनी आत्मा में स्थित परमात्मा से प्रेम करते है तो हम सबसे प्रेम करते है । लेकिन जब हम किसी व्यक्ति विशेष से प्रेम करते है तब हमारे प्रेम का दायरा बहुत ही सिमित होता है । जब हम खुद में स्थित परमात्मा को जान लेते है तो हमें सभी ओर एक वही नजर आता है । इसी को कहते है “ आत्मवत सर्वभू ”
जो परमाणु को जानता है उसके लिए यह संसार परमाणुओं से बना एक पुतला मात्र है उसी तरह जो परमात्मा को जानता है उसके लिए यह संसार उसी से परिपूर्ण है । इसलिए हमेशा ईश्वर को पाने की चाह होना चाहिए । जहाँ चाह वहाँ राह
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