एक समय की बात हैं कि एक गाँव में एक गरीब किसान सहदेव का परिवार रहता था । छोटे घर में कम जरूरते होने के कारण यह परिवार बहुत ही आनंद का जीवन व्यतीत कर रहा था । लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था । एक दिन अकस्मात अकाल मृत्यु के कारण सहदेव की मौत हो गई जिससे सम्पूर्ण परिवार के पालन – पोषण का सारा का सारा भार पत्नी सोहा पर आ गया ।
दिनरात घोर कठोर परिश्रम करके सोहा ने अपने बेटे सुशर्मा को पढ़ाया तथा बेटी को घर गृहस्थी के काम – काज में लगाये रखा । बेटा वेद – वेदांगो का अध्ययन करके विद्वान् हो गया जिससे आसपास के समस्त गांवों में उसकी ख्याति आग की तरह फ़ैल गई, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था ।
माँ वृद्धा हो गई थी तथा बहन विवाह के योग्य हो चुकी थी । ऐसी स्थिति में एक बेटे का कर्त्तव्य बनता है कि प्रत्युपकार स्वरूप अपनी माँ की देखभाल करे तथा अपनी बहन के लिए योग्य वर की तलाश करके यथाशीघ्र उसका विवाह संपन्न करा देव । लेकिन कृतघ्न सुशर्मा को कर्तव्यों के पालन से ज्यादा अपनी मुक्ति अधिक प्रिय लगी । अतः माँ – बहन को बिलखता छोड़ यह महाशय नीरव जंगलों में ईश्वर की खोज में निकल पड़े ।
सुशर्मा एक नदी के किनारे जंगल में कुटिया बनाकर तप करने लगे । आस – पास के गांवों से भिक्षा मांगकर लाते और उसी से अपना निर्वाह करते ।
एक दिन की बात है कि सुशर्मा नदी किनारे स्नान करके ध्यानमग्न बैठे थे । अकस्मात पास के एक पेड़ पर कहीं से एक कौआ और चील आकर लड़ने लगे । उनके लड़ने तथा चिल्लाने से सुशर्मा का ध्यान टूट गया । सुशर्मा को उन दोनों पक्षियों पर बहुत क्रोध आया । जैसे ही सुशर्मा ने क्रोध भरी दृष्टि से कौए और चील की तरफ देखा । तुरंत दोनों जलकर वही भस्म हो गये ।
सुशर्मा को अपनी सिद्धि पर बड़ा गर्व हुआ । सुशर्मा सोचने लगा मेरे समान सिद्ध इस संसार में कोई नहीं । इस तरह सुशर्मा को अपनी सिद्धि का अहंकार हो गया ।
साधना के पश्चात् सुशर्मा पास के एक गाँव में भिक्षाटन के लिए गये । सुशर्मा ने एक घर के द्वार पर खड़ा होकर “भवति भिक्षाम देहि” की आवाज लगाई । कोई प्रतुत्तर ना आया देख सुशर्मा ने दुबारा आवाज लगाई । इस बार अन्दर से गृहस्वामिनी आवाज आई कि “ महाराज, मैं अभी अपने पति की सेवा में व्यस्त हूँ अतः आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें”
थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के पश्चात् जब गृहस्वामिनी बाहर नहीं आई तो सुशर्मा की आंखे क्रोध से भरकर लाल हो आई । वह अहंकार से भरकर कहने लगा, “नासमझ! अपने पति की सेवा कर रही है या मेरा परिहास कर रही है । तुम जानती नहीं, इस परिहास का क्या परिणाम हो सकता हैं ?”
शांत और गंभीर स्वर में भीतर से आवाज आई, “जानती हूँ महात्मन! किन्तु मैं कोई कौआ और चील नहीं जो आपकी कोपदृष्टि से भस्म हो जाऊं । जिस माँ ने जीवनभर कठोर परिश्रम से पाल – पोसकर बड़ा किया हैं, उसे बिलखता छोड़ अपनी मुक्ति की कामना रखने वाले साधू ! आप मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।”
सुशर्मा का अहंकार पल भर में पिघल गया । अब गृहस्वामिनी भिक्षा लेकर घर से बाहर आई और भिक्षा देने लगी । सुशर्मा ने आश्चर्यपूर्वक हाथ जोड़कर कहा, “ हे देवी! आप मुझे यह बताइये कि आप कोनसी साधना करती है, जिससे बिना देखे आपने मेरी माँ अकेला छोड़ आने तथा कौआ और चील के भस्म हो जाने बारे में जान लिया ।”
गृहस्वामिनी ने उत्तर दिया, “कर्त्तव्य की साधना महात्मन्! मैं अपने पति की सेवा तथा अपने परिवार का पालन पोषण करती हूँ । उसी की सिद्धि हैं यह ।” यह सुन सुशर्मा बिना भिक्षा लिए अपने उसी घर की और चल दिए जिसे कभी वह बिलखता छोड़ आये थे । अब सुशर्मा को समझ आ गया था कि कर्तव्यों की साधना ही सबसे बड़ी साधना हैं ।
मनुष्य को हमेशा अपने कर्तव्यों के प्रति वफादार होना चाहिए । अपने स्वयं के प्रति कर्त्तव्य, माता – पिता के प्रति कर्त्तव्य, परिवार के प्रति कर्तव्य, समाज के प्रति कर्तव्य, देश के प्रति कर्तव्य और विश्व के प्रति कर्तव्य यही उस विराट ईश्वर की भक्ति, उपासना, साधना और आराधना हैं ।