राजा ययाति, देवयानी से विवाह करके शर्मिष्ठा को साथ लिए अपनी राजधानी लौटे । वहाँ पहुंचकर राजा ययाति ने देवयानी को अपने अन्तःपुर में स्थान दिया तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को अपने उद्यान में महल बनवाकर सभी सुविधाओं के साथ रखा । देवायनी अक्सर उद्यान में विहार के लिए शर्मिष्ठा के पास आ जाती थी । इस तरह कई वर्ष व्यतीत हो गये । इस बीच देवयानी के भी बच्चे हो गये ।
एक दिन यौवन से परिपूर्ण और आभूषणों से सुसज्जित शर्मिष्ठा ऋतुकाल अवस्था में स्नान आदि से निवृत होकर अपने उद्यान के वृक्ष की शाखा पकड़े विचार मग्न थी । अपने रूप – यौवन को दर्पण में निहारकर उसका मन पति के लिए मचल उठा । वह दुखी होकर बोली – “ हे अशोकवृक्ष ! तुम सबके ह्रदय का शोक दूर करने वाले ! क्या तुम मुझे भी मेरे पति का दर्शन करवाकर मेरे भी मन का शोक दूर कर सकते हो ?”
इस तरह शर्मिष्ठा मन ही मन वृक्ष से बाते करते हुए बोली – “ मैं ऋतुकाल में हूँ किन्तु अभी तक मैंने अपने पति का वरण नहीं किया है । यह कैसी विडम्बना है ? देवयानी तो पुत्रवती हो चुकी है किन्तु मेरी यह सुन्दरता और जवानी व्यर्थ ही जा रही है । क्या मुझे भी महाराज को ही पति के रूप में वरण करना चाहिए । क्या महाराज मुझे स्वीकार करेंगे । क्या वह मुझे इस समय एकांत में दर्शन देंगे ।”
शर्मिष्ठा यह सब सोच ही रही थी कि संयोग से उसी समय राजा ययाति महल से बाहर निकले । अशोक उद्यान में शर्मिष्ठा को अकेले टहलते देख वह रुक गये । तभी शर्मिष्ठा की नजर महाराज पर पड़ी । अपना मनोरथ पूर्ण होता देख वह आगे बढ़ी और महाराज को एकांत में ले गई ।
शर्मिष्ठा बोली – “ हे नहुष नंदन ! आप भली प्रकार जानते है कि मैं आपके महल में पूरी तरह से सुरक्षित हूँ, अतः मुझे मेरी पवित्रता का प्रणाम देने की कोई आवश्यकता नहीं । आप यह भी जानते है महाराज कि मेरा कुल, शील और स्वभाव क्या है । जिस तरह देवयानी आपके साथ विवाह करके आई उसी प्रकार मैं भी आपके यहाँ दासी बनकर आई हूँ । अतः आप मेरे भी स्वामी है । अतः मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि मेरे ऋतुकाल को सार्थक करें महाराज !”
यह सुनकर राजा ययाति बोला – “हे देत्य पुत्री शर्मिष्ठे ! मैं जानता हूँ कि तुम पूर्ण रूप से निर्दोष हो और सुशील हो । किन्तु जब देवयानी के साथ मेरा विवाह हुआ था उस समय मैंने देत्यगुरु शुक्राचार्य से प्रतिज्ञा की थी कि मैं देवयानी के अलावा किसी और नारी से सम्बन्ध नहीं रखूँगा । अब यदि मैंने अपना वचन तोड़ा तो वह अवश्य नाराज होंगे ।
यह सुनकर महाराज को समझाते हुए शर्मिष्ठा बोली – “ हे राजन ! जब बात प्राणों की हो तो वचन का कोई मोल नहीं रह जाता और किसी के प्राण बचाने के लिए बोला गया असत्य, असत्य नहीं होता ।”
ययाति बोले – “ हे शर्मिष्ठे ! मैं राजा हूँ और सत्य पूर्वक प्रजा का हित साधन करना मेरा कर्तव्य है । यदि मैं झूठ बोलने लगा तो ठीक नहीं होगा ।”
शर्मिष्ठा बोली – “ हे महाराज ! जिस तरह आप मेरी सखी के लिए पति है उसी तरह मेरे लिए भी आप पति है । सखी के विवाह के साथ ही उसकी सेवा में रहने वाली अन्य कन्याओं का विवाह स्वतः हो जाता है । अतः मैं उसकी सखी और सेविका आपकी भी पत्नी हूँ । और वैसे भी शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ मुझे भी आपको यह कहकर सौंपा है कि आप मेरा पालन – पोषण और सम्मान करें । उनके वचन के अनुसार आपने तीनों समय दान की घोषणा की है लेकिन यदि आप मेरी विनती ठुकराते है तो आपकी घोषणा झूठी सिद्ध होगी ।
इतना सुनकर राजा ययाति ने शर्मिष्ठा की बातों को उचित समझा और नियमानुसार उसे अपनी पत्नी स्वीकार कर लिया । इसके बाद राजा ययाति ने इच्छानुसार शर्मिष्ठा के साथ समागम करके उसे गर्भधारण करवाया । इस तरह शर्मिष्ठा ने प्रथम सुकुमार को जन्म दिया ।
जब यह बात देवयानी को पता चली कि शर्मिष्ठा के पुत्र हुआ है तो वह शर्मिष्ठा के पास आई और बोली – “ अरे शर्मिष्ठा ! तुमने कामावेग में आकर ये क्या कर डाला ? किसके है ये बच्चे ?”
शर्मिष्ठा बोली – “ अरे नहीं सखी ! ये तो एक बड़े ही विद्वान और धर्मात्मा ऋषि आये थे, उनसे मैंने धर्मपूर्वक काम की याचना की तो उनसे मुझे ये संतान प्राप्ति हुई । इस तरह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी का क्रोध शांत कर दिया ।”
इस तरह देवयानी से ययाति को यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए और शर्मिष्ठा से द्रह्यु, अनु और पुरु तीन पुत्र हुए ।
एक दिन देवयानी जब महाराज ययाति के साथ वन विहार के लिए गई तो उसने देखा कि महाराज के समान रूप और लक्षणों से संपन्न कुमार खेल रहे है । उसने उनसे उनके माता – पिता के बारे में पूछा तो उन नन्हे कुमारों ने सब बता दिया । सच्चाई जानकर देवयानी तिलमिला उठी । वह उसी समय अपने पिता देत्यगुरु शुक्राचार्य के पास गई और राजा ययाति के धोखे के बारे में बताया ।
उसके बाद शुक्राचार्य ने ययाति को शुक्रहीन अर्थात वृद्धत्व का श्राप दे डाला ।
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