गुरुदेव की अमानत | शिवाजी का सन्यास
छत्रपति शिवाजी अक्सर अपने गुरु समर्थ गुरु रामदास से मिलने जाया करते थे । समर्थ गुरु की मस्ती और आनंद को देखकर शिवाजी का मन भी कभी – कभी इस परेशानियों से भरे राजकाज से छुटकारा पाने को करता था । दिन दुगुनी रात चौगुनी समस्याओं से लड़ते – लड़ते शिवाजी बुरी तरह से परेशान हो चुके थे । अब तो वह भी किसी तरह सन्यास लेकर राजकाज के झंझट से बचना चाहते थे । एक दिन ऐसा ही विचार लेकर शिवाजी समर्थ गुरु के पास गये और बोले – “ गुरुदेव ! राजकाज की जिम्मेदारियों से बहुत परेशान हो चूका हूँ, सोच रहा हूँ सन्यास ले लूँ ?”
समर्थ गुरु बड़े ही सहजभाव से बोले – “ अवश्य सन्यास ले लो । यह सबसे उत्तम राह है, सुखशांति पूर्वक जीवन व्यतीत करने की ।”
शिवाजी सोच रहे थे कि गुरूजी आसानी से अनुमति नहीं देंगे किन्तु समर्थ गुरु तो झट से मान गये । यह देख शिवाजी खुश हो गये ।
शिवाजी बोले – “ तो गुरुदेव आपकी दृष्टि में ऐसा कोई व्यक्ति है, जो राजकाज संभाल सके । कोई ऐसा जो कर्तव्य पूर्वक सम्पूर्ण राज्य का पालन – पोषण कर सके ।”
समर्थ गुरु बोले – “ मुझे दे दे और निश्चिन्त होकर सन्यासी बन । मैं किसी योग्य व्यक्ति को नियुक्त करके सारा राजकाज संभाल लूँगा ।”
हाथों में जल लेकर शिवाजी ने अपना सम्पूर्ण राज्य समर्थ गुरु रामदास को दान कर दिया । इसके बाद शिवाजी महल में गये और कुछ मुद्राएँ भावी खर्चें के लिए लेकर जाने लगे । शिवाजी जा ही रहे थे कि समर्थ गुरु बोले – “ अरे शिवा रुक ! राज दान कर दिया तो राज के धन पर तेरा कोई अधिकार नहीं । अतः राज्य की मुद्राएँ तू अपने साथ नहीं ले जा सकता ” गुरुदेव की तर्कपूर्ण बात सुनकर शिवाजी ने मुद्राएँ वही रख दी और चल दिए ।
शिवाजी थोड़ी ही दूर गये थे कि समर्थ गुरु बोले – “ अरे शिवा ! अब तो तू सन्यासी हो गया है । अतः राजसी वस्त्रों में जाना सन्यास के अनुकूल नहीं ।” इतना कहकर समर्थ गुरु ने शिवाजी के लिए भगवे वस्त्रों की व्यवस्था करवा दी । भगवे वस्त्र पहनकर शिवाजी चल दिए कि पीछे से समर्थ गुरु बोले – “ ध्यान रहे ! तुम इस राज्य की सीमा में भी नहीं रह सकते ।”
शिवाजी बोले – “ हाँ ठीक है गुरुदेव !”
शिवाजी थोड़ी दूर गये थे कि फिर समर्थ गुरु बोले – “ भई ! तुम जा तो रहे हो, लेकिन भविष्य के बारे में भी कुछ सोचा है या नहीं ?”
शिवाजी बोले – “ भगवान भरोसे है ! गुरुदेव !”
गुरुदेव बोले – “ अरे फिर भी कुछ तो सोचा ही होगा, बिना परिश्रम के पारितोषिक तो नहीं मिलता ।”
शिवाजी बोले – “ मेहनत – मजदूरी और नौकरी करके अपना गुजारा चला लूँगा गुरुदेव !”
समर्थ गुरु बोले – “ अच्छा ! तो यहाँ आ, मेरे पास है तेरे लिए सबसे बढ़िया नौकरी !”
शिवाजी बोले – “ जी गुरुदेव ! बताइए आपकी बड़ी कृपा होगी ?”
समर्थ गुरु बोले – “ देख ! तूने यह राज्य मुझे दे दिया है । अब मैं जिसे चाहू, इसकी देखभाल के लिए रख सकता हूँ । इसलिए मुझे किसी योग्य व्यक्ति की खोज करनी पड़ेगी । अतः मैं सोचता हूँ कि तुम इसके लिए सबसे अधिक योग्य व्यक्ति हो । आजसे तू मेरा राज्य संभालना ! इस भाव से नहीं कि तू इसका स्वामी है, बल्कि इस भाव से कि तू इसका सेवक मात्र है । तेरे पास मेरी यह अमानत है ।”
इस तरह सेवाभाव से राज्य सञ्चालन करने में शिवाजी को फिर कभी कोई झंझट मालूम नहीं हुआ ।
शिक्षा – असल में समस्या मालिक बनने में होती है, सेवक बनने में नहीं । अगर हम भी अपने कर्तव्यों का निर्वाह सेवक की तरह करे तो कोई कारण नहीं कि हमें परेशान होना पड़े । अतः आज ही इस कहानी से शिक्षा लेकर स्वयं को एक सेवक की तरह गढ़िये ।
शिवाजी की गुरुभक्ति
समर्थ गुरु रामदास का शिवाजी के प्रति अधिक स्नेह देख उनके अन्य शिष्य सोचते थे कि शिवाजी के राजा होने से गुरु रामदास का उनके प्रति अधिक स्नेह है । आखिर एक दिन समर्थ गुरु ने अपने शिष्यों की इस गलत फहमी को दूर करने का निश्चय किया ।
एक दिन समर्थ गुरु रामदास अपने शिष्यों के साथ जंगल के रास्ते गुजर रहे थे । तभी अचानक उनके पेट में दर्द शुरू हो गया । सभी शिष्य गुरुदेव के दर्द को लेकर बहुत परेशान थे । तब शिवाजी ने पूछा – “ इसका कोई इलाज नहीं है क्या गुरुदेव ?”
समर्थ गुरु बोले – “ शिवा ! इलाज तो है लेकिन वो तुम्हारे में से किसी के बस का नहीं है ।” यह सुनकर सभी शिष्य एक स्वर में बोले – “ गुरुदेव ! आप बताइए, हम आपका इलाज जरुर करेंगे ।”
तब समर्थ गुरु बोले – “ अगर शेरनी के दूध की व्यवस्था हो सके तो मेरा दर्द दूर हो सकता है ।”
यह सुनते ही सभी शिष्य पीछे हट गये । लेकिन शिवाजी ने साहस से आगे बढ़कर अपने गुरु का पात्र लेकर जंगल की ओर निकल गये । बहुत देर तक जंगल में भटकने के बाद शिवाजी ने देखा कि एक गुफा में गुर्राने की आवाज़े आ रही है । जब शिवाजी ने अन्दर जाकर देखा तो पाया कि एक शेरनी अपने बच्चों को दूध पिला रही है ।
शिवाजी शेरनी से प्रार्थना करने लगे कि – “ हे माँ ! मैं यहाँ तुम्हे या तुम्हारे बच्चों को नुकसान पहुँचाने नहीं आया बल्कि अपने गुरुदेव के पेट दर्द को दूर करने के लिए मुझे तुम्हारे थोड़े से दूध की आवश्यकता है । इसलिए कृपा करके मुझे दूध लेने दे ।”
इतना सुनकर शेरनी शिवाजी के पास आकर उनका पैर चाटने लगी । शिवाजी ने दूध निकाल लिया और शेरनी को प्रणाम करके चल दिए ।
जब शिवाजी समर्थ गुरु के पास पहुंचे तो गुरुदेव बोले – “ देखा ! मुझे पता था । शिवा दूध लेकर जरुर आएगा । मेरा कोई पेट दर्द नहीं हो रहा है, ये सब तो तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए एक नाटक किया मैंने । अब समझे मुझे शिवा से अधिक स्नेह क्यों है !”
सभी शिष्यों ने अपने सिर झुका लिए ।
शिवाजी की गुरु दीक्षा और दक्षिणा
समर्थ गुरु रामदास ही छत्रपति शिवाजी के गुरु थे । वह स्वदेश और स्वराष्ट्र के प्रति अपने शिष्यों में उत्साह भरते थे । वह अक्सर शिवाजी को उपदेश दिया करते थे कि -“ हे शिवा ! तू बल की उपासना कर, बुद्धि को पूज, संकल्पवान् बन और चरित्र की दृढ़ता को अपने जीवन में उतार, यही तेरी ईश्वर-भक्ति है। भारतवर्ष में बढ़ रहे पाप, हिंसा, अनैतिकता और अनाचार के यवनी-कुचक्र से लोहा लेने और भगवान् की सृष्टि को सुन्दर बनाने के लिये इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।”
अपने गुरुदेव के वचनों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद शिवाजी बड़ी ही विनम्रता से कहते – “आज्ञा शिरोधार्य देव। किन्तु यह तो गुरु-दीक्षा हुई अब, गुरु दक्षिणा का आदेश दीजिये।”
यह सुनते ही गुरु की आंखें चमक उठीं। शिवाजी के शीश पर हाथ फेरते हुए बोले –“ गुरु-दक्षिणा में मुझे एक लाख शिवाजी चाहिये, बोल देगा?”
शिवाजी दृढ़ विश्वास से कहते है -“जरुर दूँगा गुरुदेव। एक वर्ष एक दिन में ही यह गुरु-दक्षिणा चुका दूँगा ।” इतना कहकर शिवाजी ने गुरुदेव की चरण धूलि ली और महाराष्ट्र के उद्धार के लिए सेना निर्माण में जुट गये।