जिस तरह किसी व्यक्ति की भौतिक सम्पन्नता या विपन्नता का आंकलन उसकी भौतिक सम्पति और धन से किया जाता है, ठीक उसी तरह किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक सम्पन्नता या विपन्नता का आंकलन उसकी आध्यात्मिक शक्ति (प्राण उर्जा) से किया जाता है । जिस व्यक्ति में जितनी अधिक आध्यात्मिक उर्जा होगी, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक रूप से संपन्न या यूँ कह लीजिये कि सिद्ध कहा जायेगा ।
लेकिन प्रश्न ये उठता है कि “ कोई आध्यात्मिक रूप से शक्ति संपन्न व्यक्ति अपनी उर्जा को किसी आध्यात्मिक रूप से विपन्न व्यक्ति में स्थानान्तरण कर सकता है ?” जी हाँ कर सकता है और इसी को शक्तिपात कहते है । किन्तु इतना जानना ही काफी नहीं है ।
कोई संपन्न गुरु अपनी शक्ति को शिष्य के शरीर में प्रविष्ट कराके उसके चक्रों का वेधन करता हुआ उसकी कुण्डलिनी पर आघात करता है । इस आघात से सोयी हुई कुण्डलिनी तिलमिला उठती है किन्तु वास्तव में यह कुण्डलिनी जागरण नहीं होता । बल्कि एक स्फुरण मात्र होता है, जिससे शिष्य को कुछ समय के लिए सहायता भर मिलती है । वो स्थाई नहीं होता ।
इस बात को थोड़ा गहराई से समझने की जरूरत है । यह ऐसा ही है जैसे किसी व्यक्ति विशेष को बिज़नस के लिए आर्थिक सहायता करना । जिससे कम समय में वह अपना बिज़नस खड़ा कर सके । किन्तु यदि वह कोई नया बिज़नस खड़ा करने में सक्षम न हो अथवा बिज़नस के लिए मिले पैसे पर ही मौज – मस्ती करना शुरू कर दे तो थोड़े ही समय में वह पैसा खत्म होते ही वह कंगाल हो जायेगा ।
एक और उदहारण लेते है । जैसे किसी खून की कमी वाले कमजोर व्यक्ति को यदि किसी स्वस्थ व्यक्ति का खून चढ़ा दिया जाये तो कुछ समय के लिए उसके शरीर में भी वैसी ही स्वस्थता, क्रियाशीलता और स्फूर्ति आ जाएगी । किन्तु वह स्थाई नहीं है । यदि वह स्थाई रूप से वैसी ही स्वस्थता, क्रियाशीलता और स्फूर्ति चाहता है तो उसे स्वयं खून बनाना ही पड़ेगा ।
ठीक यही बात शक्तिपात के सम्बन्ध में भी है । गुरु द्वारा दी हुई उर्जा के माध्यम से उसे स्वयं उर्जा निर्माण करना सीखना होता है । किन्तु यदि उपेक्षा पूर्वक उसे ऐसे ही बर्बाद करे तो थोड़े ही समय में वह संचित उर्जा चुक जाती है ।
इसलिए योग्य गुरु अपने उन्हीं शिष्यों में शक्तिपात के माध्यम से उर्जा का स्थानान्तरण करते है, जो उसका सदुपयोग कर सके । प्राण उर्जा या चेतना से संचालित सैकड़ो प्राणी आपके आस – पास मौजूद है । लेकिन प्रत्येक का गुण – कर्म – स्वभाव अलग – अलग है । कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि जिस तरह एक बिजली विभिन्न प्रकार के उपकरणों में विभिन्न प्रकार के कार्य करती है । ठीक उसी तरह एक प्राण उर्जा भी विभिन्न प्रकार के मनुष्यों में विभिन्न प्रकार के कार्य करेगी । अर्थात जिस गुण – कर्म स्वभाव का मनुष्य होगा । उसमें भेजी गई प्राण उर्जा भी वैसा ही कार्य करेगी । इसलिए उर्जा जब गलत हाथों में पड़ जाती है तो वह उसका दुरुपयोग करता है और जब अच्छे हाथों में पड़ती है तो वह उसका सदुपयोग करता है ।
इसी प्राण उर्जा के स्थानान्तरण के द्वारा लोगों की शारीरिक और मानसिक चिकित्सा की जाती है । शारीरिक चिकित्सा में प्राण उर्जा का प्रयोग शरीर के विभिन्न मर्म स्थलों पर हो रही रूकावटो को हटाने में किया जाता है तथा मानसिक चिकित्सा में गलत मान्यताओं और विचार प्रणाली को हटाकर सही किया जाता है ।
यह सब जिस सिद्धांत के तहत होता है, वह है विज्ञान का एक रोचक तत्थ्य, उर्जा प्रवाह का सिद्धांत – “उर्जा का प्रवाह हमेशा उच्च उर्जा स्तर से निम्न उर्जा स्तर की ओर होता है ।” यही बात प्राण उर्जा के सम्बन्ध में भी लागू होती है । इसी नियम के आधार पर शक्तिपात होता है । जाने – अनजाने इसी सिद्धांत के तहत हम अपनी उर्जा भी गँवाते रहते है ।
जब कभी कोई निम्न उर्जा का व्यक्ति हमारे संपर्क में रहता है तो स्वतः हमारी उर्जा उसमें स्थानातरित होना शुरू हो जाती है । इसीलिए जो व्यक्ति अथवा साधू – संत इस तत्थ्य को जानते है वह हर किसी को अपने चरण स्पर्श नहीं करने देते । अपनी वस्तुओं यथा कपड़े, बिस्तर, आसन, बर्तन आदि का उपयोग नहीं करने देते अथवा सबसे अलग रखते है ।
आजकल धन के लोभ में उम्र का खयाल रखे बिना विवाह कर दिए जाते है । किन्तु आपको यह भी पता होना चाहिए कि यदि किसी जवान युवती का काम सम्बन्ध बुढ्ढे होता है तो नुकसान युवती को झेलना पड़ेगा अर्थात वह समय से पहले ही बुड्ढी हो जाएगी । ठीक इसके विपरीत यदि किसी जवान पुरुष का काम सम्बन्ध किसी बुढ़िया से हो तो नुकसान पुरुष को उठाना पड़ेगा अर्थात पुरुष समय से पहले ही बुड्ढा हो जायेगा ।
लेकिन तांत्रिक और समर्थ लोग इस सिद्धांत का अतिक्रमण कर जाते है ।
जो व्यक्ति मर जाते है, उसके शरीर में प्राण उर्जा का कुछ अंश विद्यमान रहता है । जो जलाने के पश्चात् शमशान में बिखर जाती है । इसी प्राण उर्जा को इकट्ठा करने के लिए तांत्रिक लोग शमशान में जाकर साधनाएँ करते है । कुछ सिरफिरे तांत्रिक तो इस प्राण उर्जा की चोरी करने के चक्कर में मासूम बच्चों की बलि तक चड़ा देते है ।
कुछ पिशाचिनी प्रकृति की महिलाएं भी होती है जो दिखने में तो सामान्य दिखती है किन्तु अपनी नज़रों के तीर से भोले – भाले बच्चों की जीवनी शक्ति सोख लेती है । इस प्रकार की स्त्रियों को समाज में डायन या डाकन भी कहा जाता है । इस उर्जा का उपयोग यह डायने अपनी आयु, रूप पर सौन्दर्य को बढ़ाने में करती है ।
कभी कभी यह भी सुनने में आता है कि किसी तांत्रिक ने किसी मृत व्यक्ति को जीवित कर दिया । तो वह उसमें संचित जीवनी शक्ति अथवा अपनी जीवनी शक्ति का एक भाग उस मृत में प्रविष्ट करा देता है जिससे वह उतने ही समय के लिए जीवित हो जाता है ।
कुछ तांत्रिक विधियाँ भी होती है जिनके माध्यम उर्जा का अवशोषण या प्रेषण किया जाता है । कुछ वैश्याएँ इन्हीं तरीको की सहायता से कई पुरुषों से काम सम्बन्ध बनाते हुए भी लम्बे समय तक स्वस्थ और सुन्दर रहती है । इसका रहस्य यही है कि वह सम्बन्ध बनाते हुए उनकी जीवनी शक्ति को सौख लेती है ।
किन्तु इस तरह प्राप्त हुई उर्जा से कोई भी आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता । यह केवल लौकिक उद्देश्यों के को पूरा करने में सहायक हो सकती है ।
एक और बात ध्यान देने योग्य है और वह यह है कि “ उर्जा का स्थानान्तरण तो संभव है किन्तु उसके साधन और परिणाम का स्थानान्तरण संभव नहीं ।” हम जो बात कर रहे है, यह तंत्र या सूक्ष्म भौतिक जगत तक ही सीमित है । कारण जगत में स्थानान्तरण जैसा कुछ नहीं होता । वहाँ स्वयं को ही मेहनत करनी होती है । कहावत भी है “ खुद मरे बिना स्वर्ग नही दीखता ।” “अगर मुक्ति चाहिए तो भक्ति खुद को ही करनी होगी ।”
कहने का तात्पर्य है कि आत्मिक उन्नति के लिए किये जाने वाले प्रयासों का स्थानान्तरण संभव नहीं है जैसे भक्ति, ध्यान, उपासना, साधना, स्वाध्याय, सदाचार, सत्य, इत्यादि । न ही उनके परिणामों का स्थानान्तरण संभव है जैसे मुक्ति, आनंद, शांति, संतोष, पूण्य इत्यादि ।
अतः जो कोई भी मुक्ति, आनंद, शांति और संतोष की आकांक्षा रखता है वो शक्तिपात और तांत्रिक प्राण प्रत्यावर्तन के झमेले में ना ही पड़े तो अच्छा है। क्योंकि इनका प्रभाव स्थाई नहीं होता है।