दुर्योधन की जिद के रहते पाण्डवों ने कोरवों का सफाया कर दिया । महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ और युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो गया । राज्य में नये राजा के आने की ख़ुशी में उत्सव तो मनाये गये लेकिन इस महाभारत के असली सूत्रधारों के मन विषाद से भरे हुए थे ।
पाण्डवों को अब महसूस हो रहा था कि जो राज्य उन्हें मिला है वो उनके ही अपने भाइयों के खून से सना हुआ है । युद्ध में नरसंहार के दृश्य यदा – कदा उनकी आँखों के सामने प्रकट होकर उन्हें आत्मग्लानि का बोध करवा रहे थे । जागते – सोते, खाते – पीते रह – रहकर वह रक्तपात के दृश्य उनके दृष्टिपटल पर आ धमकते और उन्हें गहरे अवसाद में पहुँचा देते थे । इस अंतर्मन की वेदना से व्यथित होकर महाराज युधिष्ठिर ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित का राज्याभिषेक कर सम्पूर्ण राज्य उसके हवाले कर दिया ।
परीक्षित को राजा बनाकर पांचो भाइयों ने चैन की साँस ली । अगली ही सुबह पाँचों भाई और द्रोपदी मिलकर महर्षि व्यास के कहने से हिमालय का आरोहण करने वाले थे । उस दिन परीक्षित के राजा बनने की ख़ुशी में देर रात तक उत्सव मनाये गये । उसके बाद सभी सो गये ।
अगली ही सुबह पांडवों सहित द्रोपदी ने योगव्रत लेकर हिमालय आरोहण के लिए प्रस्थान किया । सबसे आगे युधिष्ठिर उनके पीछे भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रोपदी चल रहे थे । वन से गुजरने पर उनके साथ एक कुत्ता भी चलने लगा । सभी पांडव योग धर्म में स्थित होकर शीघ्रता से चल रहे थे कि अचानक द्रोपदी का मन योग से विचलित हो गया और वह लड़खड़ाकर धरती पर गिर पड़ी ।
यह देख भीम ने धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा – “ भैया ! पांचाली ने तो कभी कोई पाप नहीं किया, फिर यह कैसे गिर पड़ी ?”
शंका का निवारण करते हुए युधिष्ठिर बोले – “ हे अनुज ! द्रोपदी के मन में अर्जुन को प्रति विशेष पक्षपात था, अतः उसी का फल भुगत रही है ।” इतना कहकर बुद्धिमान युधिष्ठिर अपना मन योगस्थित कर आगे बढ़ गये ।
थोड़ी देर बाद सहदेव भी लड़खड़ाकर जमीन पर गिर पड़े तो भीम ने फिर से महाराज युधिष्ठिर से पूछा – “ भैया ! जो सहदेव हमेशा विनम्र भाव से हमारी सेवा में तत्पर रहता था । वह क्यों धराशायी हुआ ?”
इस पर युधिष्ठिर बोले – “ अनुज ! राजकुमार सहदेव को इस बात का घमंड था कि कोई भी उसके समान विद्वान नहीं है । अतः इसी दोष के कारण उसका पतन हुआ है ।” इतना कहकर युधिष्ठिर सहदेव को वही छोड़कर शेष भाइयों के साथ आगे बढ़ गये ।
थोड़ी ही दूर चलने पर नकुल भी धराशायी हो गया । इसपर भीम ने फिर युधिष्ठिर से पूछा तो युधिष्ठिर बोले – “अनुज ! निसंदेह नकुल बहुत सुन्दर है लेकिन रूप का अहंकार ठीक नहीं । यही गलती नकुल ने की थी । वह स्वयं को सबसे सुन्दर समझता था, सो भुगत रहा है अपने अहंकार का फल !” इतना कहकर युधिष्ठिर आगे बढ़ गये ।
अपने अनुजो और पांचाली के गिरने से मोहग्रस्त अर्जुन विचलित हो उठे । शोक – संताप से व्यथित होकर वह भी धरा पर गिर पड़े । जब तेजस्वी अर्जुन गिर पड़े तो भीम ने फिर युधिष्ठिर से पूछा – “ भैया ! जहाँ तक मुझे पता है, अर्जुन ने कभी कोई पाप कर्म नहीं किया । फिर ऐसा क्या हुआ जो अर्जुन को भी गिरना पड़ा ।”
तब युधिष्ठिर बोले – “ अनुज ! अर्जुन को अपनी शूरता का बड़ा अभिमान था । अकेले ही पूरी सेना को मारने का दम भरता था लेकिन ऐसा किया नहीं । इसलिए इसे भी गिरना पड़ा ।” इतना कहकर युधिष्ठिर आगे बढ़ गये ।
थोड़ी ही दूर तक आगे चले थे कि भीम भी गिर पड़ा । तब वह पुकार का बोला – “ भैया ! जरा मुझे भी बताते जाइये कि मेरे पतन का क्या कारण है ? मैं मानता हूँ कि मैंने बहुत कोरवों को मारा, मैं मानता हूँ मैंने दुर्योधन और दुस्शासन को तड़पा – तड़पाकर मारा है । वो दृश्य जब मेरी आँखों के सामने आते तो बहुत शोक होता है । किन्तु फिर भी मुझे मेरे गिरने का कारण बताये ?”
इसपर युधिष्ठिर बोले – “ प्रिय अनुज ! तुम बहुत खाते थे और दूसरों को कुछ भी न समझ अपने ही बल की ढिंग हांकते थे । यही कारण है कि तुम्हें धराशायी होना पड़ा । इतना कहकर बिना पीछे देखे युधिष्ठिर आगे को चल दिए । वह कुत्ता भी बराबर उनके साथ चला जा रहा था ।
तभी आकाश मार्ग से देवराज इंद्र का रथ गर्जना करता हुआ उतरता है । इंद्र युधिष्ठिर से बोले – “हे कुन्तीपुत्र ! आओ हमारे साथ रथ में चढ़ जाओं ।”
इसपर दुखी होते हुए युधिष्ठिर कहते है – “ हे देवेन्द्र ! मेरे भाई और सुकुमारी द्रोपदी रास्ते में पड़े है । यदि उन्हें भी स्वर्ग में ले चलने की व्यवस्था हो तो बड़ी कृपा होगी ।”
इसपर देवराज इंद्र बोले – “ हे कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ! आपके भाई और द्रोपदी देह को त्यागते ही स्वर्ग पहुँच गये है । वह सभी वहाँ आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे । आप सबमें श्रेष्ठ हो अतः आपको सशरीर स्वर्ग ले जाया जा रहा है ।”
तब युधिष्ठिर बोले – “ तो हे देवेन्द्र ! यह कुत्ता मेरे आश्रित मेरा सेवक है, इसे भी साथ ले चले ।”
तब इंद्र बोला – “ हे युधिष्ठिर ! स्वर्ग में कुत्ते के लिए कोई स्थान नहीं । अतः इसे यही छोड़ो और हमारे साथ स्वर्ग चलो ।”
इसपर महाराज युधिष्ठिर बोले – “ हे देवराज ! शरण में आये शरणार्थी को छोड़कर जाना सबसे बड़ा पाप है ।
मेरी करुणा मुझे इस बात के लिए इजाजत नहीं देती । कृपा करके इसे साथ ले चलने की व्यवस्था करें ।”
तब इंद्रा बोला – “ हे कुन्तीनन्दन ! आप अपने भाइयों को छोड़ दिए, अपनी पत्नी को छोड़ दिए तो अब इस कुत्ते से मोह कैसा ? छोड़ो इसे और आओ स्वर्ग चले ।”
इसपर युधिष्ठिर बोले – “हे देवेन्द्र ! भाइयों को मैंने मरणोपरांत छोड़ा है क्योंकि मैं उन्हें जिन्दा नहीं कर सकता था लेकिन यह कुत्ता जीवित है और मेरे आश्रित है, इसलिए इसे छोड़कर जाना पाप है । मैं यह नहीं कर सकता । आप चाहे तो अपना रथ ले जाइये ।”
इसके बाद कुत्ते के भेष में आये धर्मराज प्रकट हो गये और उन्होंने कहा – “ हे भरत नंदन ! सदाचार, बुद्धिमता और सभी प्राणियों के प्रति दया के कारण आप वास्तव में सिद्ध हो । इस तरह युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग गये ।