आज आचार्य आनंद के आश्रम के ब्रह्मचारियों की शिक्षा पूरी हो चुकी थी । सभी ब्रह्मचारी गृहस्थ की ओर जाने को उन्मुख थे, परन्तु जीवन का रहस्यमयी उद्देश्य जानने के पश्चात् ब्रह्मचारी मुकुल शांत ना रह सका ।
वह आचार्य आनंद के पास गया और बोला – “आचार्य ! यदि आनंद की खोज ही जीवन की सार्थकता हैं, तो मुझे उस आनंद का उपदेश दे ।” मुकुल की उत्सुकता से चमकती आँखों को देख आचार्य आनंद बोले – “ ठीक हैं मुकुल ! यदि तुम आत्मविद्या ही चाहते हो, तो जाओ ! जंगल से समिधाएँ ले आओ ।”
अब आचार्य आनंद ने मुकुल को आत्मविद्या सिखाना शुरू किया । आचार्य आनंद की आज्ञानुसार मुकुल आत्मपरिष्कार की साधना में संलग्न हो गया । संयम साधना और कठोर योगाभ्यास के प्रभाव से कुछ ही महीनों में मुकुल अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश की अवस्था तक पहुँच गया । अब मुकुल आत्मा के आनंदस्वरूप को जान चूका था इसलिए हर समय आनंद में रहता था ।
एक दिन रात्रि में एक श्वेत प्रकाश में एक देवपुरुष प्रकट हुआ और बोला –“ वत्स मुकुल ! हम भगवान शिव के दूत हैं, भगवन तुम्हारी योगसाधना से बहुत प्रसन्न हैं । अतः जो चाहो सो वर मांग लो”।
तपस्वी मुकुल बोला – “हे देव ! मैंने वरदान पाने के लिए साधना नहीं की हैं, अपितु इस लिए की है कि अपनी आत्मा का परिष्कार कर आनंद की खोज कर सकूं तथा उससे दूसरों का उपकार कर सकूं । अतः हे देव ! वह स्थिति प्राप्त करना ही मेरे लिए वरदान हैं”।
देवपुरुष ने समझाते हुये कहा – “देखो वत्स ! साधक के पास सिद्धियाँ होना चाहिए, ताकि उसकी योग साधना के प्रति विश्वास और निष्ठा बनी रहे साथ ही लोग उसकी विभूतियों का दर्शन कर सके। जिससे लोगों का श्रद्धा और विश्वास बढ़े ।”
धीर मुकुल फिर विनम्रता पूर्वक बोला –“ हे देव ! अनावश्यक सिद्धियों से केवल मेरे अहंकार का तुष्टिकरण होगा । लोग प्रशंसा करेंगे और सीधा भी लाभ पाना चाहेंगे । इससे दोनों के कल्याण में बाधा उत्पन्न होगी ।”
इस तरह आदर्शों से परिपूर्ण व्याख्या सुन देवदूत निरुत्तर हो गये और शिवजी से जाकर पूरा वार्तालाप कह सुनाया । जो आप्तकाम है, उसे भला क्या चाहिये । शिवजी बोले “किन्तु इससे दाता की अवज्ञा होती हैं, साधना से सिद्धि के सिद्धांत की अवहेलना होती हैं ।”
इस बार स्वयं देवाधिदेव शिवजी तपस्वी के सन्मुख प्रकट हुये और बोले – “वत्स ! तुम मुझे बहुत प्रिय हो, इसलिए तुम्हें कुछ तो मांगना ही चाहिए । अपने लिए ना सही, लोकहित के लिए ही मांग लो ।”
कुछ देर सोचने के पश्चात् मुकुल बोला – “देव ! यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो यह वर दे दीजिए कि मैं जहाँ भी जाऊ, सबका कल्याण करूं ।” देवाधिदेव मुस्कुराते हुये तथास्तु कह चल दिये”।
सत्य है ! संत, योगी और तपस्वी जहाँ भी जाते हैं, सबका कल्याण ही करते हैं । इसलिए जो सच्चा संत होता है, वह कभी एक जगह नहीं बैठता । एक घर से दुसरे घर, एक गाँव से दुसरे गाँव, एक नगर से दुसरे नगर यही सच्चे संत की पहचान होती हैं । ऐसे संत के सानिध्य मात्र से पापी लोग पाप का दामन छोड़ पुण्य के मार्ग का अनुसरण करते हैं । संत जिसे आशीर्वाद दे दे, उसका कल्याण हो जाता है । जिसे क्रुद्ध हो शाप दे दे, उसका विनाश अवश्यंभावी हैं । इसलिए सच्चे संत, योगी, साधक और तपस्वियों का हमेशा सम्मान होना चाहिए ।